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________________ 436 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ । अप्पणामेव अप्पाणः जइत्ता सुहमेहए ।। - उत्तराध्ययन, 9/35 बाहरी शत्रुओं के साथ युद्ध करने से क्या लाभ? अपनी आत्मा ( अशुभ / अनैतिक आत्मा) के साथ ही युद्ध कर । आत्मा (अशुभ आत्मा) को आत्मा (शुभ/शुद्ध आत्मा) के द्वारा जीतने वाला ही वास्तविक सुखी होता है । आत्म-साक्षी किं पर जण बहुजाणा, वणाहि वरयप्प सक्खियं सुकयं । - सार्थपोसहसज्झाय सूत्र, 19 अन्य लोगों की दृष्टि में धार्मिक बनने के लिए ( धर्मकार्य - क्रियाएँ तथा अनुष्ठान ) किया जाता है, वह निरर्थक है । इसलिए आत्मसाक्षी से धर्म करना श्रेष्ठ है और शुभ फलदायक है। अप्पा जाणइ अप्पा, जहट्ठियो अप्पसक्खिओ धम्मो । अप्पा करेइ तं तह, जह अप्पसुहावहं होई ।। - सार्थपोसहसज्झाय सूत्र, 22 आत्मा ही आत्मा (स्वयं अपने ) के शुभ-अशुभ परिणामों (भावों-मानसिक विचारों) को जानता है । इसलिए हे आत्मन्! अपनी आत्मसाक्षी से जो धर्मकार्य किया जाता है, वही आत्मा के लिए सुखप्रद होता है । आत्मा हुआ है। पुरिसा! तुममेव तुमं मित्तं, किं बहिया मित्तमिच्छसि ? - आचारांग, 1/3/3 मानव! तू ही मेरा मित्र है। बाहर के किसी मित्र की इच्छा क्यों करता है ? अत्तकडे दुक्खे, नो परकडे । - भगवती सूत्र, 17/5 दुःख किसी अन्य का किया हुआ नहीं है, स्वयं आत्मा द्वारा ही किया सुहपरिणामो पुण्णं, असुहो पावंति हवदि जीवस्स । - पंचास्तिकाय, 132
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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