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परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियाँ / 433
जो दूसरों को अपमानित करने के दोष का सदा सावधानीपूर्वक परिहार करता है, वही यथार्थ में मानी है। गुणशून्य अभिमान करने से कोई मानी नहीं होता।
माणी विस्सो सब्बस्स होदि कलह भय वेर दुक्खाणि। पावदि माणी णियदं इह-परलोए य अवमाणं।।
-अर्हत्प्रवचन, 7/36 अभिमानी व्यक्ति, सबका शत्रु हो जाता है। उसे इस लोक और परलोक में कलह, भय, वैर, दुःख और अपमान अवश्य ही प्राप्त होते हैं। अहिंसा धम्ममहिंसासमं नत्थि।
-भक्त परिज्ञा, 91 अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है। जीववहो अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया होई।
-भक्त परिज्ञा, 93 किसी भी दूसरे जीव का वध वास्तव में अपना ही वध है और दूसरे जीव की दया, अपनी दया है।
सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया दुक्ख पडिकूला, अप्पियवहा, पियजीविओ, जीविउकामा,
सव्वेसिं जीवियं पियं नाइवाएज्ज कंचणं।
-आचारांग, 1/2/3/4 प्राणीमात्र को अपना जीवन प्रिय है। सुख, सबको अनुकूल है और दुःख प्रतिकूल । वध (मरण) सबको अप्रिय है और जीवन प्रिय। सभी प्राणी जीवित रहना चाहते हैं। इसलिए किसी भी प्राणी की घात-हिंसा नहीं करनी चाहिए। आयओ बहिया पास।
-आचारांग, 1/3/3 अपने समान ही बाहर में दूसरों को भी देख।
सव्वओवि नईओ, कमेण जह सायरंमि निवडति। तह भगवई अहिंसा, सव्वे धम्मा समिल्लं ति।।
-सम्बोध सत्तरि, 6