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________________ 432 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन जिनके कान और हाथ कटे हों उसे आभूषण (कर्णभूषण और कंकण ) नहीं देने चाहिए । - दशवैकालिक, 9/1/1 अभिमान, क्रोध, कपट तथा प्रमाद के कारण जो शिक्षार्थी गुरु - अध्यापकों का आदर नहीं करता, शिक्षकों के समीप विनय की शिक्षा ग्रहण नहीं करता; उसका अविनयपूर्ण आचार उसी प्रकार उसको नष्ट करने वाला होता है, जिस प्रकार बाँस का फल बाँस को ही नष्ट करने वाला बनता है। थंभा व कोहा व मयप्पमाया, गुरुस्सगासे विणयं न सिक्खे। सो चेव उतस्स अभूइभावो, फलं च कीयस्स वहाय होइ ।। C - दशवैकालिक, 9/2/3 अविनीतात्मा संसार - स्रोत में उसी तरह प्रवाहित - बहता रहता है, जैसे नदी के स्रोत में गिरा हुआ काष्ठ । अहंकार बुझइ से अविणीयप्पा, कट्ठ सोयगयं जहा । माणविजए णं मद्दवं जणयई । अहंकार पर विजय प्राप्त कर लेने से नम्रता उत्पन्न होती है । अन्नं जणं खिंसइ बालपन्ने । - उत्तराध्ययन, 29/68 - सूत्रकृतांग, 1/13/14 जो अपनी प्रज्ञा के अभिमान में दूसरों की अवज्ञा करता है, वह बाल प्रज्ञ (मूर्ख) है। माण अहमा गई अहंकार करने वाले की अधोगति ( पतन) होती है । जो अवमाणकरणं, दोसं परिहरइ णिच्चमाउत्तो । सो णाम होदि माणी, ण दु गुणचत्तेण माणेण । - उत्तरा., 9/54 - भगवती आराधना, 1429
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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