________________
पर
परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियाँ / 429 विश्व की प्रत्येक वस्तु परिग्रह भी है और अपरिग्रह भी। यदि मूर्छा है तो परिग्रह है और यदि मूर्छा नहीं है तो परिग्रह नहीं है। वास्तविक दृष्टि से मूर्छा (अपनत्व भाव का अधिकार भाव) ही परिग्रह है। ___ गाहेण अप्पगाहा, समुद्दसलिले सचेल अत्थेण।
-सूत्रपाहुड, 27 जिस प्रकार सागर (नदी) के अथाह जल में से अपने वस्त्र धोने योग्य ही जल ग्रहण किया जाता है, उसी प्रकार ग्राह्य वस्तु में से भी अपनी आवश्यकतानुसार ही ग्रहण करना चाहिए। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो।
-दशवैकालिक, 6/21 मूर्छा ही वास्तव में परिग्रह है।
जो संचिऊणं लच्छिं धरणियले संठवेदि अहदूरे। सो पुरिसो तं लच्छि पाहाण सामाणियं कुणदि।।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 14 जो मनुष्य लक्ष्मी का संचय करके भूमि में उसे गाड़ देता है, वह उस लक्ष्मी को पत्थर के समान कर देता है।
संगनिमित्तं मारइ, भणइ अलीअं करेइ चोरिक्कं। सेवई मेहुण मुच्छं, अप्परिमाणं कुणइ जीवो।।
-भक्त परिज्ञा, 132 मनुष्य परिग्रह के निमित्त हिंसा करता है, असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन का सेवन करता है और अत्यधिक मूर्छा करता है। परिग्गहनिविट्ठाणं वेरं तेसिं पवढई।
-सूत्रकृतांग, 1/9/3 ___जो संग्रहवृत्ति में व्यस्त हैं, वे संसार में अपने प्रति बैर-भाव बढ़ाते रहते
अप्रमाद
उठ्ठिए नो परमायए
-आचारांग, 1/5/2' कर्तव्य के पथ पर चलने को उद्यत हुए व्यक्ति को फिर प्रमाद (आलस्य) नहीं करना चाहिए।