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428 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
मा होह णिरणुकम्पा ण वंचया कुणह ताव संतोसं। माणत्थद्धा मा होह णिक्किपा होह दाणयरा।।
-कुवलयमाला, अनुच्छेद 85 अनुकम्पा से रहित मत होओ, कृपा से रहित मत बनो, किन्तु संतोष करो, घमंड में दृप्त मत होओ, अपितु दान में तत्पर बनो। अनुशासन अप्प ो य परं नालं, कुतो अन्नाणुसासिउं।
-सूत्रकृतांग, 1/12/17 जो व्यक्ति अपनी आत्मा को (स्वयं अपने आपको) अनुशासन में नहीं रख सकता, वह दूसरों को अनुशासित रखने में कैसे समर्थ हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता। अणुसासिओ न कुप्पेज्जा
-उत्तराध्ययन, 1/9 बड़ों द्वारा अनुशासित होने पर कोध न करें। अपरिग्रह अतिरेगं अहिगरणं
-ओघनियुक्ति, 741 आवश्यकता से अधिक और अनुपयोगी वस्तु क्लेशप्रद एवं दोषरूप हो जाती है।
अज्झत्थ विसाहीए, उवगरणं बाहिरं परिहरंतो। अप्परिग्गही त्ति भणिओ, जिणेहिं तिलोक्कदरिसीहिं।।
-ओधनियुक्ति, 745 जो साधक बाह्य उपकरणों को आत्म-विशुद्धि के लिए ग्रहण करता है, त्रिलोकदर्शी (सर्वज्ञ) जिनेश्वर देवों ने उसे अपरिग्रही कहा है। अत्थो मूलं अणत्थाणं
-मरण समाधि, 603 अर्थ तो अनर्थ का मूल है। गंथोऽगंथो व मओ मुच्छा मुच्छाहि निच्छयओ।
-विशेषावश्यक भाष्य, 2573