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परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियाँ / 427
जिस तरह तृण काष्ठ (लकड़ी) से अग्नि और हजारों नदियों के जल से लवण समुद्र (विराट् सागर) तृप्त नहीं होता, उसी तरह आसक्ति वाला प्राणी काम-भोगों से तृप्त नहीं होता। अनुकम्पा
जो उ परं कंपंत, दह्णं न कंपए कढिणभावो । एसो उ निरणुकंपो, अणुपच्छा भाव जोएणं।।
-बृहत्कल्पभाष्य, 1320 जो कठोर भावों वाला व्यक्ति दूसरों को कष्ट से काँपते हुए देखकर भी मन में प्रकम्पित नहीं होता, वह अनुकंपारहित कहलाता है। क्योंकि अनुकम्पा का अर्थ ही है काँपते हुए को देखकर कम्पित होना। (दुखी को देखकर दयार्द्र होना।)
तिसिवं बुभुक्खिदं वा दुहिदं ठूण जो दु दुहिदमणो। पडिबज्जदि तं किवया तस्सेसा होदि अणुकम्पा।।
-पंचास्तिकाय, गा. 137 तृषातुर, क्षुधातुर अथवा दुखी को देखकर जो मानव मन में खिन्नता अनुभव करता हुआ उसके प्रति करुणापूर्ण व्यवहार करता है, उसका वह आचरण अनुकम्पा है।
ववसायफलं विहवो विहवस्स य विहलजलसमुद्धरणं। विहलुद्धरणेण जसो जसेण भण कि न पज्जत्तं।।
-वज्जालग्ग, 10/10 व्यवसाय पुरुषार्थ का फल विभव (वैभव) है और विभव का फल है विह्वलजनों (अभावग्रस्त) का उद्धार। विह्वल जनों के उद्धार से यश की प्राप्ति होती है और यश से कहो संसार में क्या नहीं मिलता ? अर्थात् सब कुछ मिलता है।
बाला य वुड्ढा य अजंगमा य, लोगेवि एते अणुकम्पणिज्जा।
-बृहत्कल्पभाष्य, 4342 बालक, वृद्ध और असमर्थ (चलने-फिरने के अयोग्य-अपंग) व्यक्ति, विशेष अनुकम्पा के योग्य होते हैं।