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________________ समस्याओं के समाधान में जैन नीति का योगदान / 421 व्यवहारिक रूप से अनाग्रह का अर्थ है - अपनी इच्छा किसी अन्य पर न थोपना । आगमों में जब कोई व्यक्ति किसी व्रत या नियम को ग्रहण करने की इच्छा प्रकट करता है तो गुरुदेव की ओर से कहा गया 'अहासुहं' शब्द अनाग्रह काही प्रतीक है। यानी गुरु उससे नियम ग्रहण करने का आग्रह नहीं करते, अपितु उसकी इच्छा पर ही छोड़ देते हैं । नीति के क्षेत्र में अनाग्रह सर्वोत्तम नीति है । आग्रह से सामने वाला व्यक्ति दबाव मानता है। वह यह समझता है कि उसे अनुचित अनैतिक रूप से विवश किया जा रहा है और फिर उसके मन-मस्तिष्क में विरोध की - संघर्ष की चिन्गारियाँ भड़कती हैं, जो शोले बनकर समाज के वातावरण को दूषित करती हैं, विषाक्त वातावरण निर्मित होता है । यह अनाग्रह नैतिक प्रत्यय भी जैन नीति की ही देन है । समत्व समत्व जैन नीति का हार्द है और विश्व में नैतिकता के प्रसार के लिए सर्वोत्तम है। जैन-नीति का तो प्रारम्भ ही समत्व की साधना से होता है और इसका चरमोत्कर्ष भी समत्व की उपलब्धि में समाया हुआ है। शंकराचार्य की प्रश्नोत्तरी में कहा गया है - किं सुख मूलम् ? समताभिधानम् । सुख का मूल क्या है ? समता । वास्तव में समता में सभी सुख हैं और विषमता में सभी दुःख, कष्ट और संघर्ष हैं 1 1 विषमता चाहे आर्थिक हो, सामाजिक हो, राजनीतिक हो अथवा अन्य किसी भी प्रकार की हो, दुःख, कष्ट और संघर्ष का ही कारण बनती है। वैचारिक वैमनस्य अथवा विषमता ने कई बार मानव जाति को युद्धों की विभीषिका में झोंका है। एक आकलन के अनुसार पिछले 2500 वर्ष के इतिहास में मुश्किल से 289 दिन शांति रही है, अन्यथा विश्व के किसी न किसी कोने में युद्ध होते ही रहे हैं। इनमें से अधिकांश युद्ध वैचारिक विषमता के कारण हुए हैं। इसीलिए जैन-नीति ने सुख-शांति के राज मार्ग के लिए समता का प्रत्यय विश्व के समक्ष रखा। समता द्वारा विषमता का निराकरण करके मानव-सुख की उपलब्धि कर सकता है 1
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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