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420 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
जैन नीति द्वारा प्रतिपादित अनेकान्त और स्याद्वाद नीति के ऐसे प्रत्यय हैं जो सार्वभौम नीति को प्रतिपादित करते हैं और नैतिक वातावरण को ठोस आधार प्रदान करते हैं।
काण्ट ने जो कहा-'तुम्हें ऐसे कर्तव्य का आचरण करना चाहिए, जिसे तुरन्त सार्वभौम बना सको।' इस शर्त को अनेकान्त पूरी करता है। अनेकान्त के आचरण को तुरन्त सार्वभौम बनाया जा सकता है और यह बनने योग्य भी है।
जैन नीति की इस अनुपम देन का समस्त विद्वद् जगत आभारी है।
अपरिग्रह
अहिंसा का ही प्रत्यय संचय के सम्बन्ध में अपरिग्रह के रूप में उभरता है। परिग्रह स्वयं अपने और दूसरों के लिए भी दुःखकारी है। संचय स्वयं मानव को चिन्तित कर देता है और अन्यों के लिए अभाव की स्थिति खड़ी कर देता
है।
दूसरों को अभावजन्य कष्ट और स्वयं को चिन्ता द्वारा मानसिक पीड़ा दोनों ही हिंसा के रूप हैं इसीलिए अपरिग्रह अहिंसात्मक है, अहिंसा का ही एक रूप है।
अपरिग्रह अथवा असंचय को भारतीय नीति में एक प्रमुख नैतिक प्रत्यय माना गया है। श्राव के लिए तो परिग्रह की मर्यादा करना आवश्यक बताया गया है।
जैन नीति परिग्रह के बाह्य रूप को तो दृष्टिगत करती है किन्तु उसके आन्तरिक रूप-गलत धारणा, मोह की विडम्बना ममत्व आदि पर भी दृष्टिपात करती है और आन्तरिक तथा बाह्य सभी प्रकार के परिग्रह को अनैतिक बताती
इस विस्तृत आयाम में अपरिग्रह की अवधारणा विश्व-नीति को जैन नीति की विशिष्ट देन है।
अनाग्रह
अहिंसा का ही व्यावहारिक रूप अनाग्रह है। अनाग्रह का अभिप्राय किसी बात का आग्रह न करना है। अनाग्रह का ही वैचारिक पक्ष अनेकान्त है। अनेकान्त नीति का पालन करने वाला अपने पक्ष का आग्रह नहीं करता, उसमें पक्षपात नहीं होता।