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________________ समस्याओं के समाधान में जैन नीति का योगदान / 419 आत्म-स्वातंत्र्य के साथ ही आत्म-गौरव की स्थापना हुई और आत्म-सम्मान के स्थायीभाव को नीतिशास्त्र में स्थान मिला। आत्म-सम्मान के साथ-साथ जैन दर्शन ने सभी आत्माओं को समान बताया। इसका परिणाम यह हुआ कि सांसारिक पदार्थों में आत्मा की सर्वोच्चता स्थापित हुई। अब तक जो ईश्वर आदि उच्च दैविक शक्तियों के अधीन आत्मा को-मानव आत्मा को माना जाता था, उस दासता की धारणा की चूलें हिली और मानव ने अपना महत्व समझा। आत्मा के साथ ही कर्म का प्रत्यय भी जुड़ा है। यद्यपि कर्म की मान्यता सभी अध्यात्मवादी दर्शनों ने दी किन्तु जितना सूक्ष्म विवेचन जैनदर्शन में मिलता है उतना अन्यत्र नहीं। ___कर्म के साथ पुनर्जन्म और पूर्वजन्म का प्रत्यय भी संलग्न है। नीति के क्षेत्र में आत्मा-आत्म स्वातन्त्र्य, कर्म, पुनर्जन्म के प्रत्ययों ने क्रान्तिकारी परिवर्तन किये। नीतिशास्त्र जो व्यावहारिक आचरणों का ही मानक माना जाता है। वह अन्तर्मुखी भी हुआ और इस विस्तृत आयाम में वह मनुष्य की मानसिक, वाचिक और व्यावहारिक सभी प्रकार की वृत्ति-प्रवृत्ति और क्रिया-कलापों का अध्ययनकर्ता बन गया। अहिंसा ___अहिंसा जैनदर्शन, आचार और नीति की रीढ़ है। अहिंसा का प्रत्यय, जो नीति का सर्वमान्य प्रत्यय है, जैनधर्म में विस्तृत रूप से व्याख्यायित है। प्राणी मात्र की रक्षा करना, उनके प्रति मन में भी दुर्भाव न करना, वचन भी ऐसा कोई न बोलना जिससे किसी का मर्म घायल हो। यह आचारिक और नैतिक अहिंसा है। अनेकान्त ___ यह वैचारिक अहिंसा है, विरोधी की बात का उचित सम्मान है और विभिन्न परस्पर विरोधी नीतियों के विरोध को उपशमित करने वाला है। लोक व्यवहार को उचित रूप से प्रवर्तित करनेवाला है। दार्शनिक और नैतिक जगत को जैननीति द्वारा दिया गया अनेकान्त का सिद्धान्त सर्वोत्तम है। यहाँ तक कि वैज्ञानिक जगत में सापेक्षता सिद्धान्त (Theory of Relativity) के रूप में मान्य हुआ है। 1. नीति विरोधध्वंसी, लोकव्यवहार वर्तकः सम्यक्ः
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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