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418 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
(5) कर्मक्षय-धार्मिक दृष्टि से प्रत्येक अध्यात्मवादी व्यक्ति का लक्ष्य मोक्ष है और उसकी प्राप्ति के लिए पूर्वकृत सम्पूर्ण कर्मों को क्षय अनिवार्य है।
लेकिन नीतिशास्त्र इस समवाय को साधन (means) के रूप में स्वीकार करता है। साधनों का भी सफलता प्राप्ति में महत्व है।
यदि विद्यार्थी के पास पैन न हो तो वह उत्तर पुस्तिका में प्रश्नों के उत्तर कैसे लिख सकेगा और कैसे उत्तीर्ण हो सकेगा? इसी प्रकार प्रत्येक कार्य के लिए, कला और शिल्प के लिए आवश्यक साधन अनिवार्य हैं। साधन जितने सही होंगे सफलता भी उतनी ही शीघ्र प्राप्त होगी।
इस प्रकार किसी योजना, कार्य में सफलता के लिए इन पाँचों समवायों का मिलना आवश्यक है।
आत्म-गौरव एवं स्वातंत्र्य
आत्मा का गौरव और उसकी स्वतन्त्रता की प्रतिष्ठापना जैन-नीति की एक विशिष्ट देन है। पाश्चात्य और यूनानी सभ्यताओं की बात ही दूर, भारतीय संस्कृति में आत्मा का स्वरूप निश्चित नहीं था।
उपनिषदों में ही कहीं देह (शरीर) को ही आत्मा' कहा है तो कहीं प्राणों को ही आत्मा स्वीकार किया और फिर मन को आत्मा कहा गया, प्रज्ञानात्मा की धारणा ने जोर पकड़ा तो आगे चलकर चिदात्मा तक दृष्टि जा पहुंची। सार यह कि आत्मा का स्वरूप स्थिर न हो सका।
सर्वप्रथम जैन दर्शन ने जीव का वास्तविक और व्यावहारिक दोनों दृष्टि से स्वरूप निर्धारिण किया। व्यावहारिक दृष्टि से जीव कर्मों का कर्ता है, और अपने कृत कर्मों के फल का भोक्ता है, परिणामी है, स्वदेह परिमाण है।
आत्मा का यह रूप नीतिशास्त्र में अति महत्व का है। कर्ता होने के कारण ही आत्म-स्वातन्त्र्य अथवा संकल्प स्वातन्त्र्य को मान्यता प्राप्त हो सकी जो नीतिशास्त्र का प्रमुख प्रत्यय तो है ही साथ ही आधार भी है। आत्मा-स्वातन्त्र्य के अभाव में नीतिशास्त्र ठहर ही नहीं सकता। 1. छान्दोग्योपनिषद, 9/9 2. तैत्तिरीय, 2/2/3; कौषीतकि, 3/2 3. तैत्तिरीय उपनिषद, 2/3; बृहदारण्यक, 4/6; छान्दोग्य, 7/3/1 4. कौषीतकि, 3/8 5. तैत्तिरीय, 2/6