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412 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
कि जैनों का ध्येय समाज सेवा की अपेक्षा स्वयं अपने सुधार की ओर अधिक है । '
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लेकिन श्री मैत्रका जैनधर्म - नीति के प्रति यह दृष्टिकोण भ्रान्त है जैन-नीति का लक्ष्य जितना स्वयं व्यक्ति के कल्याण के प्रति है, उससे कहीं अधिक पर- कल्याण के प्रति है ।
अब इस कथन के परिप्रेक्ष्य में जैन-नीति द्वारा दिये गये समस्याओं के समाधान के विषय में विचार प्रस्तुत करेंगे 1
(1) व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक समस्याओं के समाधानव्यक्ति की प्रमुख व्यावहारिक समस्या, स्वास्थ्य है । इसके विषय में जैन-नीति में व्यावहारिक दृष्टिकोण से कहा गया है
जैसे यात्रा का साधन रथ है, वैसे जीवन-यात्रा का साधन शरीर है, कुशल सारथी सुखपूर्वक निर्विघ्न यात्रा के लिए रथ की देखभाल करता है, उसी प्रकार व्यक्ति जीवन-यात्रा की निर्विघ्न संपन्नता के लिए शरीर की देखभाल करे, आहार- पानी आदि देवे ।
जवणट्ठाए भुंजिज्जा' जायमायाए भुंजिज्जा'
1. हमेशा ही भूख से कम खाए, ऊणोदरी करे, भूख से कम खाना महान तप है, इससे शरीर स्वस्थ रहता है, मन भी प्रसन्न रहता है ।
2. अप्पपिण्डासि - पेट से कम खाना शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य का
सूत्र है ।
3. अधिक गरिष्ठ (घी- वसायुक्त) मीठा, चटपटा, रसीला भोजन न करे । इससे चर्बी (कोलस्ट्रोल) बढ़ेगी, विकार भी बढ़ेंगे, इस प्रकार शरीर एवं मन दोनों ही बीमार हो जायेंगे ।
इनके अतिरिक्त पारिवारिक समस्याओं के समुचित समाधान के लिए भी जैननीति के व्यावहारिक सोपानों में व्यावहारिक सूत्र दिये गये हैं, यथा
1. "The Jaina list does not inlcude the other regarding virtues of benevolence, succour and social service. This shows that the Jaina virtues aim more at self-culture than at social service"
- Prof. Maitra : The Ethics of Hindus, p. 203.
2, 3. प्रश्नव्याकरण सूत्र 4. उत्तराध्ययन, 16.