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________________ अधिकार-कर्त्तव्य और अपराध एवं दण्ड / 399 सुधार में ही जैन नीति का विश्वास है। इसका कारण यह है कि जैन-दर्शन के अनुसार प्रत्येक भव्य आत्मा, चाहे वर्तमान में कितनी भी पतित दशा में क्यों न हो, वह उन्नति करेगी और अपने अन्तिम लक्ष्य-मोक्ष को प्राप्त करेगी। और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसकी वृत्ति-प्रवृत्ति आवेग-संवेग में सुधार आना, मोक्षलक्ष्यी होना अनिवार्य है। जैन आचार ग्रथों में 'निशीथ सूत्र' एक दण्डशास्त्र है जिसे जैन शब्दावली में 'प्रायश्चित्त' कहा गया है। किस प्रकार की भूल या मर्यादा विरुद्ध आचरण होने पर किस प्रकार का दण्ड-प्रायश्चित्त देना-यही इस सूत्र का मुख्य विषय है। किन्तु इसमें जो सबसे महत्वपूर्ण बात है, वह यह है कि-दण्ड दिया नहीं जाता। अपनी भूल व मर्यादाविरुद्ध नियम-भंग के प्रति व्यक्ति के हृदय में स्वयं पश्चाताप होता है और भविष्य में भूल या अपराध न करने का संकल्प जाग्रत होता है तब वह आचार्य या अनुशास्ता के समक्ष दण्ड लेने के लिए स्वयं ही उपस्थित होता है। इस प्रकार जैन नीति में कर्तव्य की अवधारणा पर विशेष बल दिया गया है और उसी के साथ धिक्कार तथा दण्ड को भी संलग्न किया गया है। आधुनिक विद्वानों ने अपराध के (1) प्राकृतिक अशुभ (Natural evil) (2-3) बौद्धिक बुराई अथवा भ्रान्ति (Intellectual evil or error (4) नैतिक अशुभ (Moral evil) (5) अधर्म (Vice) (6) पाप (Sin) और (7) अपराध (Crime) यह सात भेद बताये हैं और इनमें से प्राकृतिक अशुभ तथा भ्रान्ति के लिए मानव को उत्तरदायी नहीं माना है। लेकिन जैन नीति में इन सातों भेदों की गणना अपराध में की गई है। प्राकृतिक अशुभ जो कि भूकम्प, अकाल आदि के रूप में सामने आता है, इसका कारण व्यक्तियों की अनैतिक वृत्तियों को माना गया है। जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति में स्पष्ट कहा गया है कि वासुदेव, बलदेव, तीर्थकर आदि विशिष्ट व्यक्तियों के पुण्य प्रभाव से सागर आदि प्राकृतिक शक्तियाँ अपनी सीमा का उल्लंघन नहीं करती हैं। इसका फलितार्थ यह है कि जिस काल में मानवों में अनैतिक प्रवृत्तियाँ सीमातीत हो जाती हैं तो प्रकृति भी अपनी मर्यादा को त्याग देती है। वह सुखदायी होने की अपेक्षा मानव के लिए दुःखप्रद और कष्टकर हो जाती है। ऐसा विश्वास भारतीय जनता में व्याप्त है। इसी प्रकार जैन दर्शन में भ्रान्ति को मिथ्यात्व कहा गया है।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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