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398 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
इसी मत का समर्थन करते हैं। इसके अनुसार दमित वृत्तियों के शोधन (Sublimation) और मार्गान्तरीकरण से अपराधों को निःशेष किया जाना संभव है।
यद्यपि इन तीनों वादों के भी अपने गुण दोष हैं, फिर भी दण्ड निर्धारण के समय यह विचारणीय तो हैं ही।
जहाँ तक मानसिक उद्वेगों का प्रश्न है, ऐसे अपराधी नगण्य ही होते हैं। यद्यपि यह माना जा सकता है कि सामाजिक परिस्थितियाँ बहुत अंशों तक अपराधों के लिए उत्तरदायी हैं। एक अभावग्रस्त व्यक्ति के द्वारा की जाने वाली चोरी के लिए ये उत्तरदायी हो सकती हैं किन्तु सफेदपोश (white collar) अपराधियों के लिए क्या कहा जाय ? इनके पास तो सभी साधन हैं, धन है, सामाजिक परिस्थितियाँ अनुकूल हैं, कार-बंगला सभी कुछ है फिर भी वे कर-चोरी, स्मगलिंग, अनुचित कमीशन लेना आदि अपराध करते हैं।
दमित मनोग्रन्थियाँ भी अपराधों का एक कारण हो सकती हैं, किन्तु सभी अपराधी इसी वर्ग के नहीं होते। ____इतना होने पर भी सुधारवादी सिद्धान्त शेष दोनों सिद्धान्तों से अधिक श्रेष्ठ है। इसी सिद्धान्त के प्रभाव से आधुनिक युग में प्राणदण्ड (Capital Punishment) को उपयुक्त नहीं माना जाता।
यद्यपि प्राणदण्ड के पक्ष में अनेक तर्क दिये जाते हैं-सिसली. एम. क्रेवन (Cicely M. Craven) के अनुसार प्राणदण्ड का प्रयोजन भय दिखाकर अपराधों को रोकना है। वह इसे प्रतिरोधक भी मानता है। कुछ विद्वानों ने इसे कम खर्चीला तथा कम कष्टदायक भी बताया है। विक्टर ह्यूगो (Victor Hugo) की धारणा है कि मृत्युदण्ड समाप्त होते ही समाज का नाश हो जायेगा और गैरोफैलो (Garofalo) तो प्राणदण्ड को समाज की भलाई के लिए नैतिक युद्ध के रूप में देखता है।
यह सब तर्क अपनी जगह हैं, लेकिन प्राणदण्ड का सबसे बड़ा दोष यह है कि इसमें अपराधी के सुधार का कोई अवसर ही नहीं है।
यद्यपि जैन साहित्य में अनेक प्रकार के अपराधियों का वर्णन आता है किन्तु जैन दण्डनीति ने सदा ही सुधारात्मक सिद्धान्त को उचित माना है।
जैन नीति का प्रारंभ ही हाकार, माकार और धिक्कार नीति से हुआ जिसमें व्यक्ति को किसी प्रकार का दण्ड न देकर सिर्फ उसके सुधार की भावना निहित है।