SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 425
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अधिकार-कर्तव्य और अपराध एवं दण्ड / 397 जैन नीति के अनुसार तो यह हिंसा की परम्परा है, जो जन्म-जन्मान्तर तक चलती है, अतः सर्वथा त्याज्य है। हिंसा के प्रत्यय में यह संकल्पी हिंसा है, जान-बूझकर, योजनाबद्ध तरीके से किसी को कष्ट देना, अंग-भंग करना अथवा प्राण हनन करना है जो नैतिक सद्गृहस्थ कभी नहीं करता। (2) निवर्तनवादी सिद्धान्त (Preventive Theory)-इस सिद्धान्त के अनुसार दण्ड इसलिए दिया जाता है कि अपराधी भविष्य में अपराध न करे तथा अन्य व्यक्तियों को भी अपराध न करने की प्रेरणा मिले। इसका सीधा-सा अभिप्राय यह है कि व्यक्ति को रुपया चुराने के लिए दण्ड नहीं दिया जाता अपितु इसलिए दिया जाता है कि भविष्य में चोरियां न हों। ___व्यावहारिक दृष्टि से यह सिद्धान्त गलत है। जो लोग नैतिक जीवन व्यतीत करने की स्वयं ही इच्छा रखते हैं, उनके लिए इस प्रकार के उदाहरण से कोई लाभ नहीं और अपराधी मनोवृत्ति वाले व्यक्तियों के लिए ऐसे उदाहरण व्यर्थ हैं। जैन नीति भी इस प्रकार के उदाहरणों का समर्थन नहीं करती; क्योंकि इसकी दृष्टि में व्यक्ति स्वयं ही साध्य है, किसी अन्य के लिए साधन रूप में उसका प्रयोग नहीं कया जा सकता। (3) सुधारात्मक सिद्धान्त (Reformative Theory)-इस सिद्धान्त के अनुसार दण्ड का प्रयोजन व्यक्ति को सुधारना है। आधुनिक युग में यही सिद्धान्त अधिकांशतः मान्य है। अपराध मानवशास्त्र (Criminal Anthropology) के अनुसार अपराध एक मानसिक उद्वेग है और उसकी चिकित्सा होनी चाहिए, न कि अपराधी को पीड़ित और दण्डित किया जाना चाहिए, इससे तो उसका मानसिक उद्वेग और तीव्र होगा तथा वह अधिक एवं और भी उग्र अपराध करेगा, साधारण जेबकतरे से डाकू लूटेरा बन जायेगा। अपराध समाजशास्त्र (Criminal Sociology) अपराध के लिए सामाजिक परिस्थितियों को दोषी मानता है। इसकी धारणा है-यदि सामाजिक परिस्थितियों में वांछित सुधार लाया जा सके तो अपराधों में स्वयं ही कमी हो जायेगी अथवा वे समाप्तप्राय हो जायेंगे। ___मनोविश्लेषणवादी (Psycho-analyst) अपराधों के लिए मानव की दमित मनोग्रन्थियों (repressed complexes) को उत्तरदायी मानते हैं। इनका सबसे बड़ा समर्थक फ्रायड (Freud) हैं। अन्य मनोविश्लेषणवादी विचारक भी
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy