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________________ 394 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन अंतर्गत व्यक्ति के सभी नैतिक कर्तव्य परिगणित किये जा सकते हैं, जो समाज, राष्ट्र, मानव जाति से संदर्भित हैं और व्यक्तिगत सर्वोच्च शुभ के अन्तर्गत आत्मिक उन्नति संबंधी सभी नैतिक कर्तव्यों को सम्मिलित किया जा सकता है। जैन नीति मैकेंजी के बद्धिपरकतावाद बुद्धिमय आत्मा की सीमा से ऊपर उठकर सर्वोच्च नैतिक शुभ का लक्ष्य ज्ञानमय आत्मा और उसमें अंतर्निहित मूल्यों की प्राप्ति स्वीकार करती है। दण्ड (Punishment) दण्ड किसी भी व्यक्ति को कर्तव्यों के अपालन अथवा उल्लंघन के फलस्वरूप दिया जाता है। यह प्रस्तुत अध्याय में पूर्व ही बताया जा चुका है कि कर्तव्य का प्रत्यय उभयमुखी है। जो व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन उचित ढंग से करता है उसे अधिकार, प्रशंसा आदि प्राप्त होते हैं और वह नैतिक प्रगति करता है, समाज में उसको सम्मान्य स्थान प्राप्त होता है। - इसके विपरीत जो व्यक्ति कर्तव्यों का उल्लंघन करता है, उसे दण्ड का भागी होना पड़ता है; धिक्कार-तिरस्कार ही उसे समाज देता है और राज्य तथा समाज उसे दण्ड देते हैं। दण्ड क्या है? (What is Punishment) दण्ड की विवेचना करने से पहले, यह समझ लेना आवश्यक है कि 'दण्ड क्या है ?' भारत में दण्ड को धर्म का ही एक अंग माना गया है। वैदिक परम्परा में यमराज (मृत्यु का देवता-God of Death) को भी धर्मराज कहा गया है और उन्हें यथातथ्य न्यायकर्ता बताया गया है। यह प्रसिद्ध है कि वे पापी को उचित दण्ड देते हैं, बिल्कुल भी रियायत नहीं करते और उनकी न्याय व्यवस्था तथा उनका आदेश अटल है। उसमें कोई फेरबदल नहीं हो सकता। राजनीति के चार भेदों-साम, दाम, दण्ड और भेद में भी दण्ड एक प्रत्यय है और इसे उचित माना गया है। इसी प्रकार न्याय-व्यवस्था में दण्ड अनिवार्य माना गया है, न्यायाधीश विभिन्न अपराधों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के दण्ड देते हैं और उनके द्वारा दिया गया दण्ड न्यायोचित माना जाता है।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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