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________________ 388 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन इस सूत्र का अभिप्राय है कि मनुष्य को हाथों का खिलौना बनना, उस सीमा से अधिक दबाव डालना, उसकी सदिच्छाओं को पूरा न होने देना, अभिव्यक्ति में बाधक बनना आदि बातें अनैतिक हैं। अतः व्यक्ति को न तो स्वयं ही किसी अन्य व्यक्ति का साधन (puppet of other's will) बनना चाहिए और न किसी अन्य व्यक्ति को ही अपने हितों का साधन बनाना चाहिए। यह नीतिशास्त्र के अनुसार स्वतंत्रता के सम्मान का कर्तव्य है। जैन नीति के अनुसार भी किसी अन्य व्यक्ति की, यहाँ तक कि प्राणी मात्र की, किंचित् भी स्वतंत्रता का हनन हिंसा में परिगणित किया है। आवश्यक सूत्र में दस प्रकार की हिंसाएँ बताई हैं प्राणी अथवा प्राणियों को-1. सामने से आते हुओं को रोकना, 2. परस्पर मसलना, 3. इकट्ठा करना, 4. कठोरतापूर्वक पकड़ना-छूना, 5. परितापना देना, 6. थकना, 7. हैरान करना, 8. संघट्ठा करना 9. उनका स्थान बदलना और 10. प्राणरहित करना। यह सभी नीतिशास्त्र की शब्दावली में दूसरों की स्वतंत्रता के हनन में परिगणित करने योग्य हैं। इनके अतिरिक्त छविच्छेद, अतिभार और भक्तपानविच्छेद जो अहिंसाणुव्रत के अतिचार हैं, उनमें छविच्छेद के अन्तर्गत किसी की आजीविका का सम्पूर्ण छेद करना, उचित पारिश्रमिक से कम देना आदि भी सम्मिलित किये गए हैं। इसी प्रकार कर्मचारी की शक्ति से अधिक काम करवाना अतिभार है और नौकर को समय पर वेतन न देना, भक्तपान विच्छेद में परिगणित किये गये हैं। स्पष्ट ही ये शोषण के विविध प्रकार हैं, और यह सभी विविध प्रकार की हिंसा हैं, जो अनैतिक हैं। जैनधर्म/नीति की अहिंसा के विस्तृत आयाम में सभी प्राणियों की स्वतंत्रता का सम्मान निहित है। 1. आवश्यक सूत्रान्तर्गत आलोचना सूत्र। 2. श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री : श्रावक धर्म, पृ. 11
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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