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________________ 376 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन लेकिन साम्यवाद एक ऐसा वाद है, जिस की आधारशिला अर्थ अथवा धनोत्पादन के साधनों पर रखी गई है। नैतिक जगत में उस का कोई विशेष मूल्य नहीं है। वह तो वर्ग-संघर्ष को बढ़ावा देता है और असंतष्टि की ऐसी अनबुझ प्यास जगाता है कि मानव का मन-मस्तिष्क उद्वेलित ही रहता है। साम्यवाद सभी व्यक्तियों की समानता का ऊपर से थोपा हुआ सिद्धान्त है जो धन की सीमाओं में घुटकर रह गया है। यद्यपि जैन दर्शन में साम्यवाद है; किन्तु स्वरूप भिन्न है, वह आत्मिक साम्यवाद है, जिसे समता कहा गया है। वह ऐसा समत्व है, जो मानव के हृदय को शांत बनाता है, अन्तर आत्मा से प्रस्फुटित होता है, वह प्राणी मात्र को अपने समान ही समझता है और सब को सुखी देखना चाहता है। गांधीवादी नीतिदर्शन-इसके प्रवर्तक मोहनदास कर्मचन्द गांधी (1869-1948) हैं; जिनका सर्व प्रचलित नाम महात्मा गांधी है। यह एक राजनीतिक संत हैं। इनकी विशेषता यह है कि इनकी नीति पर चलकर ही सदियों से परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ा भारत देश स्वतन्त्र हुआ वह भी अहिंसात्मक प्रतिरोध से। अहिंसा इनका जीवन दर्शन है, आचार है, विचार है और सब कुछ(all-in-all) है। सत्य इनका साध्य रहा। इनकी विशेषता थी कि ये साध्य के साथ साधनों की पवित्रता पर विश्वास करते थे। अनुचित साधनों से उचित साध्य की प्राप्ति भी इनको इष्ट नहीं थी। इनकी नीति के आधार सत्य और अहिंसा थे तथा लक्ष्य था-सर्वोदय। सर्वोदय का अभिप्राय है-सबकी उन्नति, भौतिक भी, आध्यात्मिक भी और चारित्रिक भी। इनकी भाषा में अहिंसा सभी सद्गुणों का पुंजीभूत रूप है। इन्होंने 11 नीति-नियमों का निर्माण किया-(1) सत्य (2) अहिंसा (3) अस्तेय (4) शरीरश्रम (5) ब्रह्मचर्य (6) असंग्रह (अपरिग्रह) (7) अस्वाद (8) सर्वत्र भय वर्जन (अभय), (9) सर्व धर्म समानता (10) स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करना और (11) छूआछूत न मानना। इनमें से अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह तो जैन नीतिसम्मत पांच अणुव्रत ही हैं। शरीरश्रम, अस्वाद आदि जैन नीति के व्यावहारिक बिन्दु हैं। स्वदेशी व्रत देश की आर्थिक समृद्धि का हेतु है और छूआछूत न मानना मानव, मानव की भेद रेखा समाप्त करता है।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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