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________________ जैन नीति और नैतिक वाद / 375 (1) आहार संज्ञा (2) भय संज्ञा (3) मैथुन संज्ञा (4) परिग्रह संज्ञा (5) सुख संज्ञा (6) दुख संज्ञा (7) मोह संज्ञा (8) विचिकित्सा संज्ञा (9) क्रोध संज्ञा, (10) मान संज्ञा, (11) माया-कपट वृत्ति संज्ञा (12) लोभ संज्ञा (13) शोक संज्ञा (14) लोक संज्ञा (15) धर्म संज्ञा और (16) ओघसंज्ञा। इनमें धर्म संज्ञा को छोड़कर सभी सांसारिक कर्मों के स्रोत और धर्म संज्ञा सत्यनिष्ठा, धर्मनिष्ठा, आदि को सद्गुणों की प्रेरक है। ___ मार्टिन्यू ने भी अपने सिद्धान्त में जैन धर्म नीति सम्मत तथ्य को स्वीकार किया है। वह भी श्रद्धा, दया, मैत्री आदि को सद्गुण मानता है और क्रोध, इन्द्रिय-सुख आदि बहिर्मुखी-प्रवृत्तियों आदि को दुर्गुण। __ मानवतावाद-पश्चिमी जगत में मानवतावाद के बीज प्लेटो, अरस्तू आदि के दर्शनों में भी खोजे जा सकते हैं। किन्तु आधुनिक युग में सी. वी. बार्नेट आदि पश्चिमी चिन्तक इस विचारधारा के प्रतिनिधि हैं। ____ मानवतावादी मानवीय गुणों में ही नैतिकता के दर्शन करते हैं। वह वर्तमान जीवन को ही महत्व प्रदान करते हैं। लोकोत्तर जीवन की चर्चा का इनकी दृष्टि में विशेष महत्व नहीं है। इनका मत है कि मानव को अपना वर्तमान जीवन नैतिक बनाना चाहिए। सद्गुणों का आचरण ही इनका अभिप्रेत है। जैन-नीति का भी इस मत से कोई विरोध नहीं है, वह भी वर्तमान के प्रत्येक क्षण को नैतिकतापूर्ण जीने की प्रेरणा देती है। उसका तो उद्घोष है-वर्तमान को सुधारो, भविष्य अपने आप सुधर जायेगा। जैनदर्शन सम्मत अप्रमत्तता की साधना वर्तमान में जागरूकता-सद्गुणपूर्ण नैतिक/धार्मिक/ सदाचारी जीवन जीने की ही तो प्रेरणा है। मानव जीवन को भगवान महावीर ने दुर्लभ बताया है और प्रेरणा दी है कि मानव-जन्म पाकर सद्कर्म ही करने चाहिए। इनके अतिरिक्त आत्मचेतनावाद वैयक्तिक नीतिवाद आदि अनेक प्रकार के नैतिक वाद प्रचलित हैं। किन्तु थोड़े-थोड़े अन्तरों के होते हुए भी शुभअशुभ, उचित-अनुचित आदि के प्रत्यय और उसके कारण तथा परिणाम लगभग समान ही हैं, अधिक भेद नहीं है। 1. (क) माणुस्सं सु दुल्लंह (ख) भवेषु मानुष्य भवं प्रधान। -अमितगति तुलना करिए-किच्छोमणुस्स पडिलाभो। __ -धम्मपद, 182 न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्। -महाभारत, शान्तिपर्व, 299/20
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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