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372 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एडम स्मिथ के नैतिक विचार उसकी पुस्तक नैतिक स्थायीभावों के सिद्धान्त (Theory of Moral Sentiments) में मिलते हैं और उसके सिद्धान्तों को सहानुभूतिवाद कहा गया ।
सहानुभूति वह है जिसके द्वारा सद्गुण और ज्ञान का मूल्यांकन किया जाता है। तथा वह जो सद्गुण रूप से मूल्यांकन किया जाता है। सहानुभूति सद्गुण का साधन और स्रोत दोनों ही हैं। एक तरह से यह प्रज्ञावाद ही है ।
सहानुभूति के आधार पर रसल आदि चिन्तकों ने नैतिकता की व्याख्या करने का प्रयास किया है ।
सामान्य रूप से सहानुभूति (सह + अनुभूति) का अर्थ है दूसरों की अनुभूति, अनुभवों, भावनाओं के साथ सहवर्ती होना, उनके दुःख, शोक, हर्ष आदि को स्वयं अपने हृदय में अनुभव करना, एकाकार होना ।
सहानुभूति एक ऐसा अनुभव है जिससे नैतिकता का विकास होता है । दूसरों के कष्टों, क्लेशों को मिटाने की भावना मन में स्फुरित होती है ।
जैन दर्शन के अनुसार सम्यक्त्व का एक बाह्य लक्षण बताया गया है अनुकम्पा । अनुकम्पा का अर्थ भी यही है कि दूसरों के दुख, पीड़ा, अभाव आदि को देखकर अपना हृदय भी कंपायमान हो जाय । ऐसा व्यक्ति ही दूसरों का दुःख मिटाने के लिए तत्पर हो सकता है ।
साथ ही वह ऐसा कार्य नहीं करेगा, जिससे दूसरे दुःखी हो जायें । इस प्रकार वह नैतिक आचरण का पालन करेगा। उसमें नैतिकता का विकास होगा। इस विकास की पांच अवस्थाएं हैं
1. सहृदयता की अवस्था- इसमें व्यक्ति दूसरे की भावनाओं के प्रति सहानुभूति प्रगट करता है, कुण्ठाओं आदि के प्रति हार्दिक अनुभूति प्रगट करता
है ।
2. नैतिक मूल्यांकन की कलापूर्ण ( aesthetic) अवस्था में पारस्परिक सहानुभूतिमय भावनाओं की प्रेषणीयता होती है । इस अवस्था में साध्य और फल के साथ भी सहानुभूति होती है तो वह कर्म शुभ है । यह शुभ औचित्य और उपयोगिता (propriety and utility) के बराबर है ।
3. नैतिक नियोग (moral imperative) की अवस्था में एक और सहानुभूति और संवेदनशीलता के सद्गुण खिलते हैं तो दूसरी ओर 1. संगमलाल पाण्डेयः नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ. 115