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जैन नीति और नैतिक वाद / 371
अनुसार शुभ और अशुभ का ज्ञान इन्द्रियों द्वारा होता है जैसे-घ्राणेन्द्रिय द्वारा सुगन्ध-दुर्गन्ध में भेद किया जाता है, उसी प्रकार शुभ और अशुभ में भी इन्द्रियों द्वारा विवेक किया जा सकता है। ___ अनुभूति के आधार पर शेफ्ट्सबरी ने तीन प्रकार की भावनाएं स्वीकार की हैं
1. राग-द्वेष, ईर्ष्या आदि अस्वाभाविक अथवा असामाजिक भावनाएं। 2. दया, परोपकार आदि स्वाभाविक अथवा सामाजिक भावनाएं। 3. आत्म प्रेम आदि आत्म भावनाएं।
हचिसन ने भावनाओं को (1) शान्त और (2) अशान्त-इन दो वर्गों में वर्गीकृत किया है। इनमें से शान्त भावनाएं शुभ हैं और अशान्त भावनाएं अशुभ।
रस्किन ने रुचि को महत्व दिया है। रुचि का अर्थ उसकी दृष्टि से पसन्दगी है और वह इसे नैतिक रसेन्द्रिय कहता है।
गीता में रुचि का महत्व दिखाई देता है। वहां कहा गया है कि मनुष्य की जैसी श्रद्धा होती है, वह वैसा ही बन जाता है।
जैन नीति की दृष्टि से शेफ्ट्सरी की तीनों भावनाओं की तुलना क्रमशः अशुभोपयोग, शुभोपयोग और शुद्धोपयोग से की जा सकती है, लेकिन जैनधर्म का शुद्धोपयोग विकार रहित है जबकि शेफ्ट्सबरी ने आत्म प्रेम भावना में स्वार्थ और संग्रह का भी समावेश कर लिया है।
हचिसन की शान्त और अशान्त भावनाओं को क्रमशः शुभ और अशुभोपयोग कहा जा सकता है।
रुचि की चर्चा तो सम्यक्त्व के सन्दर्भ में उत्तराध्ययन सूत्र में भी आई है। वहां दस प्रकार की रुचियां बताई गई हैं।
लेकिन सिर्फ रुचि नैतिकता के सिद्धान्त की निर्णायिका नहीं हो सकती और न स्वयं ही नैतिक आचरण बन पाती है क्योंकि यह तो मात्र भावात्मक पक्ष ही है। इसी कारण जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र को पृथक-पृथक बताया गया है।
तथ्य यह है कि सम्यकुचारित्र अथवा नीति की दृष्टि से सदाचार ही नैतिकता की कोटि में परिगणित किया जाता है। 1. गीता, 17/3-श्रद्धा मयोऽयं पुरुषः यो यच्छ्द्धः स एव हि। 2. उत्तराध्ययन सूत्र, 28