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जैन नीति और नैतिक वाद / 367
वस्तुतः पूर्णतावाद में सुखवाद ओर बुद्धिपरकतावाद का समन्वय किया गया है। सुखवाद का लक्ष्य इन्द्रिय-सुख है और बुद्धिपरकतावाद आत्मा को शुद्ध बुद्धिमय मानता है। इसमें भावनाओं को को स्थान नहीं दिया गया जबकि सुखवाद में भावनाओं का प्रमुख स्थान है। आत्मपूर्णतावाद वासना और बुद्धि-दोनों को ही आत्मा का अनिवार्य अंग स्वीकार करके दोनों को ही उचित स्थान देना चाहता है।
किन्तु यह वासनाओं को अनियंत्रित नहीं छोड़ना चाहता। यह वासनाओं के दमन अथवा निष्कासन को भी उचित नहीं मानता। यह उनका मार्गान्तरीकरण शुभ और शुद्ध की ओर करना चाहता है।
पूर्णतावाद की सबसे प्रमुख विशेषता स्वार्थ और परमार्थ का उचित समायोजन है। यह आत्मा के दो पक्ष मानता है-1. व्यक्तिगत' आत्मा और 2. विश्वात्मा। इसके अनुसार विश्वात्मा (विश्व का कल्याण-मंगल करने वाली आत्मा) ही आत्म-साक्षात्कार करने में सक्षम होती है। इसके लिए वह आत्मत्याग आवश्यक मानता है।
श्री मैकेन्जी के शब्दों में
“हम सामाजिक साध्यों का साक्षात्कार करके ही सच्ची आत्मा अथवा पूर्ण शुभ का साक्षात्कार कर सकते हैं। ऐसा करने के लिए हमें व्यक्तिगत आत्मा का निषेध करना चाहिए जो कि सच्ची आत्मा नहीं है। हमें अपनी आत्मा का परित्याग करके अपना आत्मलाभ करना चाहिए।
आत्म-साक्षात्कार का अर्थ है आदर्शात्मा की प्राप्ति, जो कि शाश्वत और अनन्त है।
__ आत्मपूर्णतावाद के इस सिद्धान्त पर जैन-नीति का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। जैन-नीति का लक्ष्य भी आदर्शात्मा की प्राप्ति है। और इसके लिए वह कषायात्मा का त्याग आवश्यक मानती है।
जैन धर्म के अतिरिक्त भारत के जितने भी मोक्षवादी दर्शन हैं, वे सब पूर्णतावाद की अवधारणाओं से सहमत हैं। 1. व्यक्तिगत आत्मा की तुलना जैनदर्शन में वर्णित कषाय आत्मा से की जा सकती है, क्योंकि व्यक्तिगत आत्मा भी वासनात्मा-कषायात्मा ही है। देखिए-पच्चीस बोल का स्तोक, बोल 15वां और स्थानांग स्थान 8 2. उद्धृत, डा. रामनाथ शर्मा : नीतिशास्त्र की रूपरेखा, पृ. 225 3. डा. रामनाथ शर्मा : नीतिशास्त्र की रूपरेखा, पृ. 227 4. तुलनीय-अप्पाणं वोसिरामि-सामायिक सूत्र