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366 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
परस्त्रीसेवन, असत्यभाषण आदि नियम सार्वभौम बन सकते हैं; इसलिए यह सभी नैतिक हैं।
इस दृष्टि से काण्ट भारतीय दर्शनों के समीप आ जाता है। जैन नीति सहित सभी भारतीय धर्म एवं नीतिकार अहिंसा आदि को सार्वभौम ही स्वीकारते हैं ।
काण्ट का स्वतन्त्रता का सिद्धान्त जैन-नीति के बहुत निकट है । स्वतन्त्रता से उसका अभिप्राय व्यक्ति को समान अधिकार प्राप्ति से है । यदि कोई व्यक्ति दूसरे का अधिकार छीनता है तो उसका कार्य अनैतिक है।
जैन-नीति भी इसी सिद्धान्त को स्वीकार करती है । वह तो प्राणि मात्र को अपने समान समझने की प्रेरणा देती है - जैसे हमें अपना सुख प्रिय है, वैसे ही सबको अपना सुख प्रिय है; अतः किसी को भी दुःख नहीं देना चाहिए, किसी को बन्धन में नही रखना, आज्ञा में नही रखना चाहिए', आदि... यह जैन-नीति का मूल उद्घोष है । आत्म पूर्णतावाद
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आत्म- पूर्णतावाद (Eudaemonism) वह नैतिक सिद्धान्त है जो आत्म-कल्याण को ही परम श्रेय ओर परम शुभ मानता है । इसकी व्युत्पत्ति ग्रीक शब्द यूडीयामोनिया (Eudaemonia) से हुई है जिसका अर्थ होता है - कल्याण । इसे संक्षेप में पूर्णतावाद ( Perfectionism) भी कह दिया जाता है ।
पूर्णतावाद अथवा आत्मपूर्णतावाद के बीज प्राचीन यूनानी दार्शनिक अरस्तू के विचारों में मिलते हैं । अरस्तू ने अपनी पुस्तक 'निकोमकिअन ईथिक्स' 2 में मनुष्य मात्र का लक्ष्य यूडीयामोनिया (Eudaemonia) बताया है जिसके अंतर्गत तीन बातें आती हैं । (1) क्रियाशीलता (2) निःश्रेयस और (3) आनन्द या सुख ।
इसीवाद के दर्शन ईसामसीह के इन शब्दों में होते हैं
"तुम वैसे ही पूर्ण हो जाओ जैसे स्वर्ग में तुम्हारा पिता है ।" "
आधुनिक युग में पूर्णतावाद का समर्थन लिबनित्स, स्पिनोजा आदि ने किया किन्तु हेगेल ने 'पूर्ण पुरुष या व्यक्ति बनो' - यह मुख्य शिक्षा देकर इस वाद को नवीन आधार पर प्रतिष्ठित किया ।
1. आचारांग सूत्र कहता है-आय तुले पयासु- सब को अपने आत्मा के तराजू से तोलो । 2. संगमलाल पाण्डेय : नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ. 270
3. संगमलाल पाण्डेय : नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ. 271