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________________ जैन नीति और नैतिक वाद / 365 मत में प्रकृति के अनुसार जीवन का अभिप्राय बुद्धि के अनुसार जीवन है। इनके अनुसार मानव को सामाजिक नियमों का पालन करना चाहिए। तीसरा भेद ईसाई संन्यासवाद है। इनके अनुसार वर्तमान जीवन केवल एक यात्रा है जो स्वर्ग का दैवी जीवन पाने की तैयारी है। जहां तक जैन नीति का सम्बन्ध है, वह बुद्धि के अनुसार वर्तमान जीवन अस्वीकार नहीं करती, साथ ही शुभ कर्मों द्वारा स्वर्ग प्राप्ति के प्रयास को भी उचित ठहराती है; किन्तु स्वर्ग को अपना लक्ष्य नहीं मानती। जैन नीति के अनुसार इस मानव जन्म का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है, सम्पूर्ण बंधनों से विमुक्ति है। स्वर्ग इस यात्रा का एक सुखद पड़ाव मात्र है। आधुनिक युग में बुद्धिपरकतावाद का सबसे बड़ा समर्थक जर्मन दार्शनिक काण्ट (Imanuel Kant) है। इसका दर्शन कठोर कहा जाता है; क्योंकि इसने भावनाओं को कोई स्थान नहीं दिया। यह वासनाओं के ऊपर उठे हुए बुद्धिमय जीवन को नैतिक जीवन मानता है। काण्ट के अनुसार भावनाओं से प्रेरित कर्म नैतिक नहीं हो सकते अपितु निरपेक्ष बुद्धि से प्रेरित कर्म ही नैतिक हो सकते हैं। इसी आधार पर यह 'कर्तव्य के लिए कर्तव्य' का सिद्धान्त मानता है। काण्ट की यह धारणा गीता के निष्काम कर्मयोग से प्रभावित है। अपनी धारणा के अनुसार ही वह सार्वभौम विधान, प्रकृति विधान, स्वयं साध्य, स्वातन्त्र्य और साध्यों का राज्य-नीति के इन प्रत्ययों का विधान करता है। इन सभी में वह सार्वभौमता (generalisation) को प्रमुख तत्व बनाता to जैन नीति काण्ट से पूर्णतः सहमत नहीं है। वह ज्ञान के साथ भावनाओं का महत्व भी स्वीकारती है। यह कहना अधिक संगत होगा कि नैतिक जीवन में जैन नीति के अनुसार ज्ञान से भावनाओं का अधिक महत्व है। यदि मानव की भावना शुद्ध अथवा शुभ है तो मानव नैतिक है, यह जैन दृष्टिकोण है। उदाहरणार्थ-डाक्टर के आपरेशन करते समय यदि रोगी का प्राणान्त हो जाता है तो भी भावना शुद्ध होने से डाक्टर नीतिमान है। इसके विपरीत शिकारी की गोली से यदि कोई पशु बच निकलता है तो भी भावना कुत्सित होने से शिकारी अनैतिक ही है। काण्ट का मत है कि जो नियम सार्वभौम बन सकते हैं वे नैतिक हैं और जो सार्वभौम नहीं बन सकते वे अनैतिक हैं। उदाहरण के लिए अब्रह्मसेवन,
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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