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364 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
कौषीतकि उपनिषद् में कहा गया है - निःश्रेयस् मात्र प्राण में है ' चाणक्य ने भी धन और स्त्री की अपेक्षा अपनी आत्मा के रक्षण की बात कही है। 2 भी धम्मपद में कहते हैं कि स्वयं को सुरक्षित रखना चाहिए ।
बुद्ध
यह कहा जा सकता है कि जैन - अहिंसा का संपूर्ण भवन जीवन-रक्षा के नैतिक सिद्धान्त पर खड़ा है । किन्तु यह एक ही पक्ष है। जैन अहिंसा स्व और पर दोनों के जीवन की रक्षा का सिद्धान्त मानती है; जबकि नैतिक विकासवाद अपनी स्वयं की रक्षा तक सीमित है, इसीलिए इसे वैयक्तिक विकासवाद कहा जाता है । और यही जैन - नीति तथा विकासवाद में प्रमुख अन्तर है।
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स्पेन्सर के इस वैयक्तिक विकासवाद को स्टीफेन (Stephen ) तथा अलेक्जेण्डर ने विशद बनाने का प्रयास किया। स्टीफेन ने इसमें सामाजिक स्वस्थता (Social Health) और अलेक्जेण्डर ने सामाजिक समानता (Social Equilibrium) का प्रत्यय जोड़ा। सामाजिक स्वस्थता और समानता का अभिप्राय समाज की सुव्यवस्था माना जाना चाहिए। इस सुव्यवस्था को बनाये रखने के लिए 'जैन नीति के व्यावहारिक बिन्दुओं' के अधिकांश सूत्रों में इस प्रकार की अन्तर्भावना निहित है।
बुद्धिपरकतावाद
बुद्धिपरकतावाद बुद्धि के अधिकार पर बल देता है और सच्चरित्र को परमशुभ मानता है। इसके अनुसार आत्मविजय ही परमकल्याण है । यह वासनाओं को ठुकराता है और उन्हें आत्मा के जकड़ने के लिए जाल के समान मानता है।
इसका एक भेद विरक्तिवाद (Cynicism) हैं, जिसका सिद्धान्त है- धर्म (Virtue) धर्म के लिए, यह सुख अथवा आनन्द का साधन नहीं है ।
यद्यपि विरक्ति को तो जैन-नीति भी स्वीकार करती है; किन्तु वह धर्म अथवा सद्गुणों को सुख और आनन्द का साधन भी मानती है।
दूसरा भेद बुद्धिवादी विरक्तिवाद (Stoicism) है। इसका प्रवर्तक जेमो (Jemo) (340-265 B. C ) था । यह धर्ममय जीवन को श्रेष्ठ मानते हैं । इनके
1. कौषीतकि उपनिषद्, 3/2 - अस्तित्वेव प्राणानां निःश्रेयसमिति ।
2. चाणक्य नीतिदर्पण - आत्मानं सततं रक्षेद् दारैरपि धनैरपि ।
3. धम्मपद, 157