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________________ जैन नीति और नैतिक वाद / 363 विकासवादी सुखवाद विकासवाद 19वीं शताब्दी की सबसे बड़ी देन है। यद्यपि यह सिद्धान्त किसी न किसी रूप में पहले भी मिलता था किन्तु डार्बिन और हर्बर्ट स्पेन्सर ने इसको सर्वथा नवीन रूप प्रदान किया। इस विषय में डार्बिन की पुस्तक 'जातियों का उद्भव' (Origin of Species) युगान्तरकारी सिद्ध हुई। किंतु यह तथा 'मानव का आविर्भाव' (Descent of Man) नाम की डार्बिन की दोनों पुस्तकें प्रकृति और प्राकृतिक पर्यावरण के आधार पर लिखी हैं। यही बात उनकी 'जीवन-संग्राम' (Survival of the Fittest) के संबन्ध में सत्य है। ____ हरबर्ट स्पेन्सर ने इसी विकासवाद के सिद्धान्त को नीति के क्षेत्र में भी लागू करने का प्रयत्न किया। इसी कारण इन दोनों का विकासवाद 'प्राकृतिक विकासवाद' कहलाता है। इस सिद्धान्त के आधार पर तीन बातें प्रतिफलित होती हैं 1. जीवन की रक्षा 2. पर्यावरण से समायोजन 3. विकास की प्रक्रिया में सहयोगी बनना। अतः विकासवाद के अनुसार मानव के वे क्रिया-कलाप जो इन तीनों बातों में सहयोगी अथवा सहायक बनते हैं, वे शुभ हैं, और जो इन में सहयोगी नहीं बनते वे अशुभ हैं। जहां तक जीवन की रक्षा आदि इन तीनों बातों का सम्बन्ध है, जैन दर्शन का इसमें मतभेद नहीं है। आचारांग सूत्र में कहा गया है-जीवन सभी को प्रिय है। दशवैकालिक के अनुसार भी सभी प्राणी जीवित रहना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। अभयदान अथवा जीवन-रक्षा को भी श्रेष्ठ कहा गया है। इस जीवन-रक्षा में ही दीर्घायुष्य का रहस्य छिपा हुआ है। आवश्यकसूत्र में तो यहाँ तक कहा है कि सीधी राह चलते प्राणियों को उनकी गति, स्थान, क्रिया आदि में अवरोध पैदा करना भी पाप है। इसके लिए साधक मन में पश्चात्ताप कर उनसे क्षमा माँगता है। 1. आचारांग, 1/2/3 2. दशवैकालिक, 6/11 3. सूत्रकृतांग, अध्ययन 6, वीरत्थुइ-दाणाण सेठं अभयप्पयाणं । 4. देखें 'इरियावहिया सूत्र आवश्यक 1
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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