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360 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
मिल भी बैन्थम का समर्थक है और उसने ज्ञान, सौन्दर्य तथा धर्म को भी सुख के साधन रूप में स्वीकार किया है
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जैन दृष्टि से भी प्राणि मात्र को सुखवादी माना जा सकता है । आचारांग,' दशवैकालिक टीका' से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है I
यही तथ्य महाभारत' में भी स्वीकार किया गया है । छान्दोग्य उपनिषद् का मन्तव्य है कि मानव के कर्म करने का हेतु सुख है । चाणक्य तो मानव को स्वार्थी मानता ही है ।
किन्तु सभी भारतीय दर्शन व्यक्तिगत सुख से अधिक सार्वजनिक सुख पर बल देते हैं। 5
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इतने पर भी जैन नैतिकता की विशिष्टता यह है कि यह व्यक्तिगत सुख की अवधारणा तो मान्य करती है किन्तु साथ ही स्पष्ट आघोष करती है कि तुम्हारे सुख के लिए दूसरों के सुख का हनन न हो, उन्हें दुःख न हो। दूसरों को दुःख देकर अपने सुख के लिए जैन नैतिकता में कोई स्थान नहीं है । वहाँ तो अपने समान ही प्राणी मात्र को समझने की मान्यता हैं । " और कहा है - जिसे तुम कष्ट व पीड़ा देना चाहते हो, वह कोई दूसरा नहीं तुम ही स्वयं हो ।' साथ ही मानसिक अथवा मनोवैज्ञानिक सुख के ऊपर उठकर आत्मिक सुख की ओर लक्ष्य रखती है, यही इसका ( जैन नैतिकता का) अभीष्ट है । पश्चिमी नैतिकता इसी बिन्दु पर जैन नैतिकता से पिछड़ जाती है।
नैतिक सुखवाद अथवा उपयोगितावाद
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नैतिक सुखवाद की दो अवधारणाएँ हैं(1) सुख का अनुसरण करना चाहिए।
1. आचारांग, 1।2।3।81 - सव्वे पाणा.... सुहसाया दुक्खपडिकूला ।
2. दशवैकालिक टीका, पृ. 46
3. दुखादुद्विजते सर्वः सर्वस्य सुखमीप्सितम् ...
4. छांदोग्य उपनिषद, 7 / 22/1
- महाभारत, शांतिपर्व, 139 161
5. देखिए - यजुर्वेद, शान्तिपाठ में प्रस्तुत की गई सर्व सुख भावना
सवे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया ।
सर्वे भद्वाणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥
6. अत्तसमे मन्निज्ज छप्पिकाए ।
7. ज हंत्तव्व ति मनसि - आचारांग |
- दशवैकालिक, 10/5