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जैन नीति और नैतिक वाद / 359
उन्होंने तो संशय अथवा सन्देहवादियों को असंबद्धभाषी अथवा मिथ्यावादी बताया है । '
सुखवाद
सुखवाद के अनेक प्रकार हैं, जैसे- जड़वादी सुखवाद, मनौवैज्ञानिक सुखवाद आदि ।
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जड़वादी सुखवाद का आशय है - भोगवाद । इसमें इन्द्रिय-सुख को ही सुख माना गया है। पश्चिम में इसका बड़ा समर्थक एरिस्टीपस था । प्राचीन काल में एपीक्यूरस ने यह सिद्धान्त दिया था । उसके नाम पर एपीक्यूरियनिज्म (Epicureanism) नाम का एक वाद ही चल पड़ा ।
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भोग सुखवादी आत्मा, परमात्मा आदि का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं करते, उनके मतानुसार परलोक भी नहीं है, कर्म मिथ्या है, कोई नैतिक नियम शाश्वत नहीं है, चिन्ता छोड़कर वर्तमान में प्राप्त सुखों का भोग निराबाध रूप से करना चाहिए। 2
भारत में चार्वाक सिद्धान्त इसी प्रकार का है । वह भी यही सब बातें कहता है। उसके मतानुसार - जब तक जीवन है, सुख से जीओ, ऋण लेकर भी घी पियो, इस शरीर के भस्म होने पर पुनरागमन ( आत्मा के पुनर्जन्म) का प्रश्न ही नहीं । एक शब्द में इस सुखवाद का आशय है खाओ, पीओ, मौज करो ।
लेकिन वह वाद भारत में कभी स्थायित्व न पा सका । वैदिक, बौद्ध और जैन- तीनों दर्शनों ने इसे घोर अनैतिकतावाद कहा है।
मनौवैज्ञानिक सुखवाद का अभिप्राय है कि प्राणी मात्र सुख के लिए प्रत्यनशील रहता है ।
बैन्थम ने कहा है “प्रकृति ने मनुष्य को सुख और दुःख नामक दो सर्वशक्तिमान स्वामियों के अधीन रखा है । उनको ही यह संकेत करना है कि हमें क्या करना चाहिए और हम क्या करेंगे?” *
सिरेनिक्स (Cyrenaics) भी इसी मत का समर्थन करता है ।
1. सूत्रकृतांग, प्रथम श्रुतस्कन्ध अध्ययन 12, गाथा 2,
2. डा. रामनाथ शर्मा : नीतिशास्त्र की रूपरेखा, पृ. 107
3. Bentham, J: Principles and Morals of Legislation. Chap 1.
—Quoted by : डा. रामनाथ शर्मा : नीतिशास्त्र की रूपरेखा, पृ० 107 ( पाद-टिप्पण