SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 386
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 358 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन वेलट्ठपुत्त की मान्यताओं में मिलते हैं। जब वह कहता है-यदि कोई मुझे पूछे कि क्या परलोक है और मुझे ऐसा लगे कि परलोक है तो मैं कहूँगा - हाँ ! लेकिन मुझे वैसा नहीं लगता और ऐसा भी नहीं लगता कि परलोक नहीं है । औपपातिक प्राणी हैं या नहीं, अच्छे बुरे कर्म का फल होता है या नहीं तथागत मृत्यु के बाद रहता है या नहीं, इनमें से किसी भी बात के लिए मेरी कोई निश्चित धारणा नहीं है ।' तब वह निश्चित ही संदेह से ग्रस्त है और उसका कथन संदेह - वाद ही है । वह किसी भी तत्व का निश्चय नहीं कर पा रहा है । संशय अथवा भ्रम (Confusion) में है । इसके बीज महाभारत में भी यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में मिलते हैं, जब यक्ष के प्रश्न का उत्तर देते हुए युधिष्ठिर कहते हैं - तर्क अप्रतिष्ठित है, श्रुतियों के मत भी भिन्न-भिन्न हैं, एक भी ऋषि ऐसा नहीं है जिसका मत प्रामाणिक माना जाय । ' इन शब्दों में स्पष्ट संशय धर्मतत्व के विषय में झलक रहा है । ऐसे की कथन ऋग्वेद में भी सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में मिलते हैं । जब ऋग्वेद का ऋषि कहता है कि पहले सघन अन्धकार था, फिर उसमें प्रकाश की उत्पत्ति हुई, सूर्य - तारागण - पृथ्वी जल आदि निर्मित हुए | और अन्त में कह देता है - कौन कह सकता है कि सृष्टि के आदि में क्या था ? जब किसी नैतिक प्रतिमान को निर्धारित करना सम्भव न हो सके जिसके आधार पर शुभ-अशुभ, करणीय - अकरणीय का निर्णय किया जा सके, उस स्थिति को नैतिक सन्देहवाद कहा जाता है । पश्चिमी विद्वानों ने सन्देहवाद को मनोवैज्ञानिक सुखवाद के साथ जोड़ा है और तर्क एवं भावनाओं से उसकी पुष्टि करने का प्रयास किया है । I लेकिन जैन दर्शन को यह नैतिक सन्देहवाद पूर्णरूप से अस्वीकार है। भगवान महावीर ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि पुण्य-पाप, जीव-अजीव, कल्याण-अकल्याण, आदि तत्व हैं, ऐसा निश्चय करना चाहिए, इसके विपरीत नहीं । 1. भगवान बुद्ध, पृ. 183 2. दार्शनिक क्षेत्र में संजय वेलट्ठिपुत्त की मान्यताओं को विक्षेपवाद कहा गया है किन्तु विक्षेप का अभिप्राय भ्रम, संशय संदेह होता है । देखें Standard Illustrated Dictionary विक्षेप शब्द | वहां इसके लिए Confusion शब्द दिया गया है। 3. महाभारत : वन पर्व, 312 / 115 4. सूत्रकृतांग, द्वितीय श्रुतस्कन्ध अध्ययन 5, गाथा 12 / 29, संज्ञाप्रधान सूत्र
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy