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जैन नीति और नैतिक वाद (JAINA ETHICS-ETHICO-MORAL THEORIES)
यह अनुभूत्यात्मक सत्य है कि मानव ज्ञान-संवेगात्मक प्राणी है। एक ओर वह अपनी बुद्धि से भली-भाँति चिन्तन-मननकर नैतिक नियमों का पालन करना चाहता है तो दूसरी ओर अधिकाधिक सुख की अनुभूति भी करना चाहता है। वह अपने आचरण को एक ओर ज्ञानात्मकता की लगाम से साधे रखना चाहता है, सन्मार्ग अथवा नैतिक मार्ग की ओर मोड़ना चाहता है तो दूसरी ओर आवेग-संवेग उसे इन्द्रिय-सुखों की ओर बहा ले जाने के लिए प्रतिपल-प्रतिक्षण पूरी शक्ति से तत्पर रहते हैं।
इसी द्वैधपूर्ण स्थिति में मानव-मन कभी इधर मुड़ता है तो कभी उधर। और यही द्वैध विभिन्न नैतिक वादों की उत्पत्ति का कारण है। सन्देहवाद अथवा संशयवाद आदि का आधार मानव की ज्ञानात्मक प्रवृत्ति है तो सुखवाद आदि वादों का आधार मानव के विभिन्न संवेग हैं। ___ यद्यपि इन वादों के बीज प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में भी मिलते हैं किन्तु पश्चिमी नीतिशास्त्रियों ने इनकी विस्तृत चर्चा और विश्लेषण किया है।
यहाँ हम इनमें से कुछ प्रमुख वादों की चर्चा-विवेचन करके यह स्पष्ट करना चाहेंगे कि जैन दर्शन और जैननीति का इनके संबंध में क्या दृष्टिकोण हैं, यह किस सीमा तक ग्राह्य अथवा अग्राह्य हैं। संदेहवाद ___ सन्देहवाद का अभिप्राय है, किसी वस्तु के विषय में निश्चय न होना, संशय बना रहना। इसके बीज भारतीय चिन्तनधारा के एक विचारक संजय