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आत्म-विकास की मनोवैज्ञानिक नीति / 353
की स्थिति छठे गुणस्थान में ही प्राप्त हो जाती है, इससे आगे के गुणस्थानों में तो आत्म-शोधन की साधना और प्रक्रिया चलती है, जो धर्म अथवा तप के क्षेत्र में आती है।
13वां गुणस्थान सर्वज्ञत्वदशा (जीवन्मुक्त दशा)
इस गुणस्थान में अवस्थित आत्मा सभी विकारों से परे हो जाती है, क्रोध आदि किसी प्रकार का आवेग-संवेग, मोह-ममत्व नहीं रहता, संपूर्ण ज्ञान अनावृत हो जाता है और वह जीवन्मुक्त हो जाता है। इसी को अर्हत और सर्वज्ञ कहा जाता है।
यद्यपि इस भूमिका में मन-वचन काय की प्रवृत्तियां होती हैं, केवली भगवान सभी जीवों की रक्षा, दया के लिए धर्मोपदेश देते हैं, जिज्ञासुओं की शंकाओं का समाधान भी करते हैं, किन्तु यह सब उनका जीताचार है, नीति का यहां प्रवेश नहीं है। यह गुणस्थान और इसमें होने वाली प्रवृत्तियां नीति की सीमा से परे हैं।
इसके उपरान्त जीव सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है, अनन्त आनन्द में लीन हो जाता है।
नीति की दृष्टि से गुणस्थानों की अवधारणा एक महत्वपूर्ण घटक है। इसके अनुसार यह स्पष्टरूप से समझा जा सकता है कि व्यक्ति नैतिकता की किस भूमिका तक पहुंच चुका है। गुणस्थानों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनमें आध्यात्मिक और नैतिक उन्नति के प्रत्यय साथ-साथ चलते हैं। दोनों में सामंजस्य और समन्वय स्थापित होता है। __सिर्फ व्यावहारिक और सांसारिक दृष्टि से विचार किया जाय तो नैतिकता का प्रारम्भ धार्मिकता से पहले भी हो सकता है। नास्तिक व्यक्ति जिनमें धार्मिकता का स्पर्श भी नहीं होता, जो ईश्वर, पुनर्जन्म, कर्म और यहां तक कि आत्मा की सत्ता को भी स्वीकार नहीं करते, वे भी नैतिक हो सकते हैं। ___दया, सेवा, परोपकार, सहायता आदि ऐसी प्रवृत्तियां जो नैतिक हैं नास्तिकों में भी मिल सकती हैं और वे लोग भी नैतिक कहला सकते हैं, सज्जन हो सकते हैं। गुणस्थानों की अपेक्षा ऐसी नैतिकता, प्रथम सोपान में भी मिल सकती है। लेकिन ऐसी नैतिकता संसारलक्ष्यी होती है।