________________
352 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
पंचम गुणस्थान में वह कभी राजकथा, देशकथा, स्त्रीकथा आदि विकथा भी कर लेता था, परिवार धन आदि के प्रति तथा स्वयं अपने शरीर के प्रति ममत्व तथा इन्द्रिय-विषयों के (संयमित/मर्यादित) सेवन के कारण जो अनैतिक आचरण हो जाता था, वह भी इस भूमिका पर आकर समाप्त हो जाता है।
छठे गुणस्थानवर्ती श्रमण की स्वकेन्द्रित प्रवृत्तियां यतना-सावधानी के कारण धार्मिक और नैतिक ही होती हैं।
श्रमण यद्यपि सांसारिकता को त्याग चुका होता है, फिर भी समाज के प्रति विर्लिप्त नहीं रह पाता। स्वयं नैतिकता का परिपूर्ण पालन करते हुए समाज को भी नैतिकता की प्रेरणा देता है।
इस नैतिकता की प्रेरणा को ही शास्त्रों में पर-कल्याण कहा गया है और वह एक प्रकार से श्रमण का कर्तव्य ही बन गया है। इसीलिए तो वह सतत विहार करता है, धर्म और धार्मिकता का प्रचार करता है।
सम्पूर्ण नैतिकता अथवा नैतिक चरम की दृष्टि से देखा जाय तो इसी भूमिका पर आकर शुभ-अशुभ, कर्तव्य-अकर्तव्य आदि जितने भी नैतिक कर्तव्य हैं, उनका यथार्थ ज्ञान भी होता है और साथ ही आचरण भी।
इसका कारण यह है कि इस भूमिका पर आकर उसकी प्रज्ञा ऋतंभरा बन जाती है, सत्य और यथार्थग्राही हो जाती है। ममत्व, अहंत्व आदि दोष जो प्रज्ञा में मलिनता और विकार लाते हैं, वे सबके सब अल्पतम रह जाते हैं और प्रत्येक आचरण का उसे यथार्थ बोध हो जाता है। उस समय उसके हृदय में एक ही भावना होती है-स्व-पर-कल्याण की और भावना के अनुरूप ही उसके सम्पूर्ण क्रिया-कलाप संचालित होते हैं, जो नैतिक ही होते
हैं।
7-12 गुणस्थान
सात से बारह तक के गुणस्थान पूर्णरूप से आत्म-केन्द्रित हैं। इनमें वचन और काय की कोई भी अशुभ क्रिया नहीं होती। श्रमण अपनी आत्मा के ध्यान में, आत्म-शोधन में लीन रहता है।
यद्यपि यह सत्य है कि कषायों/संवेगों का सद्भाव रहता है, किन्तु वे इतने क्षीण हो जाते हैं कि कोई विशेष प्रभाव नहीं डाल पाते। फिर नैतिक चरम 1. सम्पूर्ण श्रमणाचार का वर्णन 'नैतिक चरम अध्याय में किया गया है। -लेखक