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________________ आत्म-विकास की मनोवैज्ञानिक नीति / 351 इसी स्थल से व्यावहारिक नैतिक जीवन का भी प्रारम्भ हो जाता है। ऐसा व्यक्ति शुभ-अशुभ, कर्तव्य-अकर्तव्य, अच्छा-बुरा आदि में विवेक करके शुभ, करणीय कर्तव्य का आचरण करने लगता है। उसके जीवन से अशुभ, अकरणीय आदि अनैतिकताएं पलायन कर जाती हैं। व्यावहारिक रूप में वह सज्जनता (gentleness) की छवि प्रदर्शित करता है। __आवेगों, संवेगों, कषायों पर पूर्ण नियन्त्रण न होने के कारण कभी वह फिसलता भी है, स्वीकृत व्रतों में दोषों का-अतिचारों का सेवन भी कर लेता है, किन्तु वह शीघ्र ही सम्भल भी जाता है। नैतिक दृष्टि से भी कभी-कभी वह अनैतिकता का सेवन भी कर लेता है, जैसे-परिवार की प्रतिष्ठा, धन की रक्षा के लिए कभी वह झूठ भी बोल जाता है, कलह आदि से बचने के लिए कपटपूर्वक मिथ्या-भाषण (polished lie) भी कर जाता है, शत्रु के प्रति कभी उसके मन में दुर्भाव भी आ जाते हैं, दुश्चिन्तन भी हो जाता है। इस प्रकार जीवन की विषम परिस्थितियों में अशुभ का आचरण भी कर लेता है। परन्तु यह सब स्थायी नहीं होता, वह शीघ्र ही सम्भल जाता है और अशुभ भावों तथा अपशब्दों, मिथ्याभाषण एवं आचरण के लिए वह तीव्र पश्चात्ताप करता है तथा नैतिक आचरण के लिए और भी अधिक दृढ़ता से अपने आपको तैयार करता है। 6. प्रमत्तविरत गुणस्थान धर्मशास्त्रों के अनुसार इस गुणस्थान की प्राप्ति आत्मा को प्रत्याख्यानावरणीय कषायों (क्रोध, मान, माया, लोभ) के क्षय अथवा क्षयोपशम से होती है। इस स्थिति में व्यक्ति अपने समस्त सांसारिक सम्बन्धों को तोड़कर धर्माराधना में लीन हो जाता है। धर्माराधना के प्रभाव से वह अपने आवेगों-संवेगों पर पूर्ण नियन्त्रण करने में सक्षम हो जाता है। उसके जीवन में अनैतिकता बिल्कुल भी नहीं रहती। उसकी समस्त वृत्ति, प्रवृत्तिया धर्म संपृक्त होने के कारण नैतिक ही होती है, धर्ममय बन जाती हैं।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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