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________________ 350 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में वह जो नैतिक कार्य करता है, वे सब के सब संसार - सुख प्राप्ति की अभिलाषा से सिंचित रहते हैं । इस प्रकार उसकी नैतिकता के पीछे भौतिक भोगेषणा रहती है, किन्तु चतुर्थ गुणस्थानवर्ती आत्मा की प्रवृत्ति आत्मसुखलक्ष्मी हो जाती है, वह अपना तथ्य अन्य आत्माओं के कल्याण के विषय में चिन्तन करता है, और इसी को अपने जीवन का लक्ष्य बना लेता है । यह संभव है कि ऐसी आत्मा नैतिकता का आचरण न कर सके, किन्तु उसकी अन्तर्वृत्ति, भावना नैतिकता का पालन करने की ओर ही हो जाती है, उसके मन-मस्तिष्क में आध्यात्मिक - नैतिकता की तड़प जाग उठती है, इच्छा यही रहती है कि नैतिक आचरण ही किया जाय । 5. देशविरति गुणस्थान चतुर्थ गुणस्थान में आत्मा की जो नैतिक इच्छा है, वह इस गुण स्थान में साकार रूप ग्रहण कर लेती है । वह नैतिकता का परिपालन करने लगता है - एक आदर्श सद् गृहस्थ के रूप में । शास्त्रीय दृष्टि से इस गुणस्थान की प्राप्ति अप्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया, लोभ के क्षय अथवा क्षयोपशम से होती है। अप्रत्याख्यानी कषाय, वास्तव में व्रताचरण में अवरोधक होती हैं । इन अवरोधों के हटते ही आत्मा व्रतों का पालने करने में सक्षम हो जाता है, वह निरतिचार' श्रावक व्रतों का पालन करने लगता है । अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान वाले आत्माओं का दृष्टिकोण यथार्थ तो हो जाता है, किन्तु ये अपने आवेगों - संवेगों पर नियन्त्रण नहीं कर पाते। वे चाहते तो हैं कि आवेगों के प्रबल प्रवाह में न बहें, इसके लिए प्रयास भी करते हैं, फिर भी तृणसमूह में आग की चिन्गारी के समान उनके आवेग प्रबल हो उठते हैं और वे उस धारा में बह जाते हैं । प्रस्तुत देशविरति गुणस्थान में उनके प्रयास सफल होने लगते हैं, वे अपने संवेगों - आवेगों, क्रोध आदि कषायों पर आंशिक रूप में ही सही, काबू करने में सक्षम हो जाते हैं। 1. श्रावकव्रतों और उनके अतिचारों का विस्तृत वर्णन 'नैतिक उत्कर्ष' नामक अध्याय में किया गया है। - लेखक
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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