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________________ आत्म-विकास की मनोवैज्ञानिक नीति / 349 गुणस्थान है। यह विकास ऐसा ही है, जैसे घने मेघपटलों को चीरकर सूर्य का प्रकाश जगमगा उठता है। आत्मा भी अनादिकाल के मिथ्यात्व और अज्ञानान्धकार को विनष्ट कर इस गुणस्थान को प्राप्त करता है; अनैतिक से नैतिक बन जाता है। इस गुणस्थान की प्राप्ति सीधे मिथ्यात्व गुणस्थान से होती है, यानी आत्मा प्रथम गुणस्थान मिथ्यात्व से सीधी छलांग इस स्थान पर लगाता है, बीच के दोनों (दूसरा और तीसरा) गुणस्थानों को छोड़ जाता है; ठीक ऐसे ही जैसे कोई व्यक्ति सबसे नीची-पहली सीढ़ी से उछल कर चौथी सीढ़ी पर कदम रख दे। इस गुणस्थान अथवा सम्यक्त्व की प्राप्ति शास्त्रीय दृष्टिकोण से मिथ्यात्व मोह के विलय से होती है। यह विलय दो प्रकार से होता है-1. क्षय से और 2 उपशम से। मनोवैज्ञानिक भाषा में कहें तो कह सकते हैं-1. शोधन से और 2. दमन से। शोधन का अभिप्राय है क्षय और दमन का अभिप्राय उपशम जिस प्रकार दमित वृत्ति और भी प्रबल वेग से उठ खड़ी होती है और व्यक्ति को पतित कर देती है उसी प्रकार उपशम से प्राप्त सम्यकत्व भी प्राप्त होने के 48 मिनट के अन्दर ही अन्दर छूट जाता है और कषायों-संवेगों के प्रबल प्रभाव से पतित हो जाता है। उस पतन के समय सास्वादन गुणस्थान की स्थिति बनती है और मिथ्यात्व का स्पर्श होते ही मिथ्यात्वी बन जाता है। शोधन की स्थिति में आत्मा का पतन नहीं होता, वह सम्यक्त्वी ही बना रहता है। लेकिन शोधन अथवा क्षय के साथ मार्गान्तरीकरण की स्थिति बन जाय तो शास्त्रीय भाषा में क्षयोपशम कहा जाता है। क्षयोपशम दर्शनमोह का तो होता ही है, अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ का भी होता है। ऐसा आत्मा भी अपने सत्य दृष्टिकोण पर स्थिर रहता है। यह सम्यक्त्व काफी समय तक (शास्त्रीय भाषा में 66 सागर तक) रह सकता है। नैतिक दृष्टि से यह गुणस्थान अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इस स्थान की प्राप्ति होने पर ही आत्मा में अध्यात्म-संपृक्त नैतिकता का विकास होता है।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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