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________________ 348 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन मोड़ने का प्रयास करता है तो बोधात्मा आदर्शात्मक स्थिति की ओर उन्नत करना चाहता है । इस संघर्ष में यदि अबोधात्मा विजयी होता है तो व्यक्ति मिथ्यात्व में गिर जाता है और यदि बोधात्मा विजय प्राप्त कर लेता है तो सम्यक्त्वी बन जाता है। दोनों भावों की इस संघर्षमय स्थिति के कारण ही शास्त्रों में इसका स्वभाव दही-मिश्री मिश्रित जैसा बताया गया है । जिस प्रकार दही और मिश्री का मीठा-खट्टा स्वाद आता है, वैसा ही स्वाद इस गुणस्थान वर्ती जीव को सम्यक्त्व - मिथ्यात्व की स्थिति का अनुभव होता है । कभी वह सत्य सिद्धान्त पर यकीन करने को उत्सुक होता है तो दूसरे ही क्षण मिथ्या विचार उसके मन-मस्तिष्क को आच्छादित कर देते हैं । कभी सोचता है - जिनेन्द्र भगवान ने लोक को अकृत्रिम बताया है, यह सत्य है तो कुछ ही क्षण बाद उसका विचार पलट जाता है कि अन्य सभी धर्मावलम्बी लोक को ईश्वरकृत कहते हैं तो इतने लोग गलत कैसे हो सकते हैं? इस प्रकार उसका विश्वास स्थिर नहीं होता, भटकता ही रहता है, यह संशयात्मक स्थिति है । नैतिक दृष्टि से भी यह संशयात्मक स्थिति पतन की ही सूचक है । संदेहशील व्यक्ति जब शुभ-अशुभ का निर्णय ही नहीं कर सकता तो उससे नैतिक शुभाचरण अथवा कर्तव्य पालन की आशा करना ही व्यर्थ है । 4. सम्यग्दृष्टि गुणस्थान (नैतिक भूमिका का पदन्यास) आध्यात्मिक एवं नैतिक, प्रत्येक दृष्टि से यह गुणस्थान विकास का स्थान है। इस स्थान का स्पर्श करते ही व्यक्ति की गलत धारणाएं, मिथ्या मान्यताएं विनष्ट हो जाती हैं और सद्विवेक जागृत हो जाता है, वह सत्य को असत्य को जानने / समझने लगता है । उसकी श्रद्धा और प्रतीति दिवाकर के प्रकाश के समान चमक उठती है । मिथ्यात्व तथा अज्ञान का निविड़ तिमिर विलीन हो जाता है । दूसरे और तीसरे गुणस्थान इस गुणस्थान की अपेक्षा अपक्रान्तिके, पतन के स्थान है। वास्तविक दृष्टि से यही गुणस्थान उन्नति और विकास का
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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