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________________ 346 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन (4) सांशयिकता-ऐसी आत्मा की चित्तवृत्ति दोलायमान रहती है। वह तत्व के विषय में निर्णय नहीं कर पाता। (5) अज्ञान-अज्ञान के दो अभिप्राय हैं-1, अल्पज्ञान और 2. कुज्ञान अथवा विपरीत ज्ञान। ___अल्पज्ञान तो चार इन्द्रिय वाले सभी जीवों और पचेन्द्रिय व पशु-पक्षियों को होता है, तत्व की बात समझ सकें, इतना ज्ञान उन्हें होता ही नहीं। बहुत से मनुष्य भी ऐसे होते हैं। कुज्ञान का अभिप्राय है भ्रान्तिपूर्ण ज्ञान या मिथ्यात्वभावयुक्त ज्ञान। वास्तव में नीतिशास्त्र के दृष्टिकोण से कदाग्रह, दुराग्रह, संशयात्मकता आदि ऐसी स्थिति हैं, जो व्यक्ति की नैतिकता में बाधक बन जाती हैं। ऐसा व्यक्ति आत्मविकास के नैतिक पथ पर नहीं चल पाता। __आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से ऐसा व्यक्ति निम्नतम स्तर पर होता है किन्तु सांसारिक दृष्टि से वह बहुत सफल भी हो सकता है। राजनीति आदि के क्षेत्र में वह शिखर पर पहुंचा हुआ भी हो सकता है, वह आर्थिक दृष्टि से भी अत्यधिक सफल हो सकता है। व्यापार तथा अन्य क्षेत्रों में वह प्रामाणिक, मधुरभाषी और सज्जन भी हो सकता है। धर्म के बाह्य पक्ष में भी उसका बहुत ही सुन्दर आचरण सम्भव है, तितिक्षा आदि गुण भी हो सकते हैं, दानी भी हो सकता है और परोपकारी भी। इतना सब कुछ होते हुए भी वह आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से शून्य ही होता है। आध्यात्मिक नैतिकता की दृष्टि से निम्नतम स्तर पर माना गया सास्वादन गुणस्थान (अधोमुखी वृत्ति) यद्यपि गुणस्थान क्रम में सास्वादन का द्वितीय स्थान है किन्तु यह आत्मा की अधोमुखी वृत्ति-पतनोन्मुखी दशा है। इसके लिए प्राकृत भाषा में सासायण शब्द है। संस्कृत में इसके दो रूप बनते हैं-(1) सास्वादन और (2) सासादन। उपशम सम्यक्त्वी' जब सम्यक्त्व के पतित होकर मिथ्यात्व की ओर गिरता है किन्तु मिथ्यात्व तक पहुंचता नहीं उस अन्तराल में आत्मा को 1. उपशम सम्यक्त्व का चतुर्थ सम्यक्त्व गुणस्थान में विवेचन किया गया है।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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