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________________ 344 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन प्रस्तुत गुणस्थान में आत्मा मोह से पूरी तरह ढकी रहती है। मोह का अभिप्राय है-संसार और सांसारिक भोगों की लालसा, परिवार, पुत्र, पत्नी, धन-सम्पत्ति आदि में मग्न रहना, आत्मा और आत्मा की शुद्धि उन्नति और विकास की ओर ध्यान न देना। ___ यह आत्मा बहिर्मुखी होता है। वह बाहरी पदार्थों में सुख की खोज करता है, इसी कारण धन, वैभव आदि के संचय में तल्लीन रहता है। उसकी इच्छा आत्मा के स्वभाव को जानने की होती ही नहीं। परिणामस्वरूप वह आत्मिक आनन्द का रसास्वाद नहीं कर पाता। उससे वंचित ही रहता है। मोहग्रस्त दशा में भ्रमित हुआ संसार में भटकता रहता है। सैद्धान्तिक अथवा कर्मग्रन्थों की दृष्टि से ऐसे आत्मा को दर्शन सप्तक का तीव्र उदय रहता है। दर्शन सप्तक में मिथ्यात्व की तीन प्रकृतियां (1) मिथ्यात्व (2) मिश्रमोहनीय और (3) सम्यक्त्वमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय की चार प्रकृतियां (4) अनन्तानुबंधी क्रोध (5) अनन्तानुबंधी मान (6) अनन्तानुबन्धी माया और अनन्तानुबन्धी लोभ होती हैं। अनन्तानुबन्धी का अभिप्राय है-इन कषायों का अनन्तकाल से बंध होता रहा है, यानी आत्मा और कषायों का अनन्तकालीन बंधन। ___ यह चारित्रमोहनीय की प्रकृतियां हैं और इनके कारण आत्मा आध्यात्मिक/नैतिक चारित्र की ओर उन्मुख नहीं हो पाता। दर्शनमोहनीय की मिथ्यात्वादि तीन प्रकृतियां उसके आत्माभिमुख होने में बाधक बनी रहती हैं। मिथ्यात्व के प्रकार मिथ्यात्व आत्मिक दृष्टि से निविड़ अन्धकार है। इसके अनेक प्रकार हैं। तत्वार्थ भाष्य (8/1) में अभिगृहीत और अनाभिगृहीत-यह दो भेद बताये गये हैं। आवश्यक चूर्णि (6/1658) और प्राकृत पंचसंग्रह में तीन भेद हैं-1. संशयित 2. अनाभिग्राहिक और 3. आभिग्राहिक, गुणस्थान क्रमारोह स्वोपज्ञवृति (गाथा 6) तथा कर्मग्रन्थ (भाग 4, गाथा 51) में आभिग्राहिक, अनाभिग्राहिक, आभिनिवेशिक, सांशयिक और अनाभोगिक-यह पांच प्रकार के मिथ्यात्व बताये गये हैं। आगम और आगमेतर साहित्य में बिखरे हुए सभी मिथ्यात्व भेदों की गणना करने पर मिथ्यात्व के 25 भेद प्राप्त होते हैं। इनका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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