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आत्म-विकास की मनोवैज्ञानिक नीति / 343
मोहनीय कर्म के प्रमुख दो भेद हैं- ( 1 ) दर्शनमोहनीय और ( 2 ) चारित्रमोहनीय |
क्षय और उदय आठों कर्मों का हो सकता है किन्तु क्षयोपशम चारों घाती कर्मों का ही संभव है और उपशम केवल मोहनीय कर्म का ही होता है । दर्शनमोहनीय के क्षयोपशम, क्षय तथा उपशम से दृष्टि अथवा श्रद्धा विशुद्ध होती है और चारित्रमोहनीय की इन्हीं अवस्थाओं से चारित्र - विशुद्धि होती है ।
ज्ञानावरणीय के क्षय, क्षयोपशम से ज्ञान की निर्मलता, दर्शनावरणीय की इन्हीं अवस्थाओं से दर्शन की विशुद्धि और अन्तराय कर्म यही अवस्थाएं आत्मा वीर्यगुण के प्रगटीकरण भूमिकाएं निष्पन्न करती हैं।
औदयिक भाव सांसारिक सुख-दुःख आदि का निमित्त बनता है तथा आत्मा के आध्यात्मिक नैतिक विकास में बाधक बनता है
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पारिणामिक भाव आत्मा के स्वभाव परिणमन में सहायक होता है, इसलिये यह आध्यात्मिक / नैतिक विकास अथवा पतन में न साधक है और न बाधक ही है।
आध्यात्मिक / नैतिक उत्थान - पतन की दृष्टि से औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और औदयिक भाव ही महत्वपूर्ण हैं, इनमें प्रथम तीन प्रकार के भावों का अधिक महत्व है ।
अब हम गुणस्थानों का आध्यात्मिक / नैतिक विकास की दृष्टि से विवेचन प्रस्तुत करते हैं, साथ ही यह भी प्रत्येक गुणस्थान में आत्मा के किस प्रकार के भाव होते हैं और मन / चित्त आदि की कैसी दशा तथा वृत्ति - प्रवृत्ति होती है । '
1. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान
‘मिथ्या' का अभिप्राय मोहग्रस्तता है और गुणस्थान आत्मा की दशा को संसूचित करता हैं कि आत्मा के गुणों की क्या दशा है ?
1. गुणस्थान जैनदर्शन का विशिष्ट शब्द है । इसका कर्मग्रन्थों में विशद वर्णन किया गया है । प्रत्येक गुणस्थान में कितनी कर्म-प्रकृतियों का बंध, उदय, क्षय, क्षयोपशम होता है, कितनी कर्म-प्रकृतियों की बन्धव्युच्छिति होती है, इन सब बातों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है । किन्तु नीतिशास्त्र के सन्दर्भ में इतना वर्णन अपेक्षित नहीं है, अतः आत्मा के भावों, मन की प्रवृत्तियों तथा इनके नैतिक / आध्यात्मिक प्रभाव तक ही गुण-स्थान वर्णन को सीमित रखा गया है ।
जिज्ञासु लेखक का ग्रन्थ 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' में गुणस्थान का वर्णन देखें।