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342 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
(1) मिथ्यादृष्टि (2) सास्वादन सम्यग्दृष्टि (3) मिश्रदृष्टि (4) अविरतसम्यग्दृष्टि (5) देशविरति (6) प्रमत्तसंयत (7) अप्रमत्तसंयत (8) निवृत्तिबादर (9) अनिवृत्तिबादर (10) सूक्ष्मसंपराय (11) उपशांतमोह (12) क्षीणमोह (13) सयोगी केवली (14) अयोगी केवली
हमारा विषय चूंकि आध्यात्मिक/नैतिक विकास से संबंधित है इसलिये चेतना (आत्मा) की परिणतियाँ (भाव-भावधारा) और उनको प्रभावित करने वाले विरोधी घटकों की सामान्य जानकारी कर लेना अत्यन्त आवश्यक है। चेतना को परिणतियों को 'भाव' कहा गया है और उनको प्रभावित करने वाले घटकों को 'कर्म' संज्ञा से अभिहित किया गया है।
चेतना के भाव __ चेतना अथवा आत्मा के पांच प्रकार के भाव हैं-(1) औदयिक (2) क्षायिक (3) औपशमिक (4) क्षायोपशमिक और (5) पारिणामिक। इनमें से पारिणामिक भाव जीव के अपने हैं, उसकी स्वयं की परिणमन क्रिया है। शेष चार भाव कर्मों की विभिन्न दशाओं के परिणामस्वरूप जीव में होते हैं। कर्मों के उदय से औदयिक भाव, क्षय से क्षायिक भाव, उपशम से औपशमिक भाव और क्षयोपशम से क्षायोपशमिक भाव।
कर्म
कर्म आठ हैं-(1) ज्ञानावरणीय (2) दर्शनावरणीय (3) वेदनीय (4) मोहनीय (5) आयु (6) नाम (7) गोत्र और (8) अन्तराय।
इनमें से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय घाती कर्म है तथा आयु, गोत्र और वेदनीय अघाती हैं। घाती का अभिप्राय है-इनका घात-क्षय किये बिना 'कैवल्य' प्राप्त नहीं होता।
1. औपशमिकक्षायिकौ भावो मिश्रश्च जीवस्यस्वतत्वमौदयिक पारिणामिकौ च ।
-तत्वार्थसूत्र, 2/1 2. तत्वार्थसूत्र, 8/5