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340 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
नीतिशास्त्र के दृष्टिकोण से प्रथम बहिरात्म दशा अनैतिक दशा है, दूसरी दशा में नीति का प्रारम्भ भी होता है और शनैःशनैः ऐसा व्यक्ति नीति के चरम तक पहुंच जाता है तथा तीसरी परमात्म-दशा नीति से अतीत होती है।
इन तीनों अवस्थाओं के अन्य नाम मूढ़ात्मा, महात्मा और परमात्मा भी हैं।
इन तीनों अवस्थाओं का स्वरूप जैन ग्रंथों में गुणस्थानों द्वारा बहुत ही सुन्दर और विस्तृत रूप से समझाया गया है।
गुणस्थान
गुणस्थान शब्द सर्वप्रथम कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रंथ समयसार में मिलता है। आगम साहित्य में यह शब्द प्राप्त नहीं होता। प्राकृत पंचसंग्रह और कर्मग्रन्थ में मिलता है। दिगम्बर आचार्य नेमिचन्द्र ने जीव को गुण' कहा है। गोम्मटसार में गुणस्थान के लिए जीवसमास शब्द भी प्रयुक्त हुआ है। समवायांग में भी चौदह जीवसमासों का उल्लेख है।
गुणस्थानों की रचना का आधार समवायांग में वर्णित कर्मविशुद्धि को माना गया है। अभयदेवसूरि ने गुणस्थानों को ज्ञानावरणादि कर्मों की विशुद्धि से निष्पन्न बताया है। दिगम्बराचार्य नेमिचन्द्र ने कहा है कि प्रथम चार गुणस्थान दर्शनमोह के उदय आदि के निमित्त से और अगले चारित्रमोह के क्षयोपशम आदि से निष्पन्न होते हैं।
1. विशेष-यह ध्यान रखने योग्य है कि आत्मा की तीनों दशाओं और गुणस्थानों के वर्णन में अध्यात्म नैतिकता ही प्रमुख है, संसाराभिमुख नैतिकता अपेक्षित नहीं है। इसी
दृष्टिकोण के आधार पर संपूर्ण विवेचन किया गया है। 2. ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया।
गुणठाणता भावा... ... -समयसार, गाथा 56 3. प्राकृत पंचसंग्रह, 1, 3-5 4. चतुर्थ कर्मग्रन्थ, देवेन्द्र सूरि, गाथा 1 5. गोम्मटसार, गाथा 7 6. गोम्मटसार, गाथा 10 7. समवायांग समवाय, 14 8. कम्मविसोहिमग्गण पडुच्च चउद्दस जीवट्ठाणा पण्णत्ता। -समवायांग, 14/1 9. कर्मविशोधिमार्गणां प्रतीत्य-ज्ञानावरणादिकर्म विशुद्धि गवेषणामाश्रित्य।
-समवायांगवृत्ति, पत्र 26 10. गोम्मटसार, गाथा 12-13