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आत्म-विकास की मनोवैज्ञानिक नीति / 339
बद्ध वर्णन सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा ही किया गया उपलब्ध होता है।
परवर्ती सभी श्वेताम्बर दिगम्बर आचार्यों ने इसी त्रिविध वर्गीकरण को स्वीकार करके इनकी विशद चर्चा की है।
गीता और सांख्यदर्शन ने त्रिगुण सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है, जो प्रमुखतया कुन्दकुन्द द्वारा निर्धारित त्रिविध वर्गीकरण के समान ही है।
डॉ. राधाकृष्णन ने स्पष्ट कहा है-आत्मा का विकास तीन सोपानों में होता है। यह निष्क्रिय, जड़ता और अज्ञान (तमोगुण प्रधान अवस्था) से भौतिक सुखों के लिए संघर्ष कर, रजोगुणात्मक प्रवृत्ति के द्वारा ऊँची उठती हुई ज्ञान और आनन्द की ओर बढ़ती है।
(1) बहिरात्मा-ऐसा आत्मा शरीर और सांसारिक भोगों में निमग्न रहता है। आत्मा की ओर उसकी दृष्टि ही नहीं जाती, आत्मा को जानने की रुचि ही जागृत नहीं होती। यह परिवार, धन-सम्पत्ति आदि में रचापचा रहता है। यह आत्मा की विषयाभिमुखी प्रवृत्ति है। आचार्य हरिभद्र ने ऐसी आत्मा को भवाभिनन्दी कहा है।
(2) अन्तरात्मा-ऐसा आत्मा अन्तर्मुखी होता है। उसमें अपनी आत्मा को जानने/समझने की रुचि जागृत हो जाती है। आत्मा के यथार्थ स्वरूप पर वह श्रद्धान रखता है। इन्द्रिय-विषय-भोगों की रुचि कम हो जाती है। ज्यों-ज्यों उसका आत्म श्रद्धान दृढ़ होता है, वह संसार और सांसारिक भोगों का त्याग करता चला जाता है और उन्हें पूर्णरूप से त्याग कर संसार-त्यागी श्रमण बन जाता है। साधना के महामार्ग पर चलता हुआ परमात्मा-पद प्राप्ति की ओर अग्रसर रहता है।
(3) परमात्मा-यह दो प्रकार के होते हैं-(1) जीवमुक्त (संदेह ईश्वर) और (2) संसारमुक्त (विदेह ईश्वर)। जीवनमुक्त अरिहंत परमात्मा है और संसार मुक्त सिद्ध परमात्मा।
1. मोक्ष पाहुड, गाथा 4 2. गीता, 14, 15; 7,13 आदि 3. भगवद्गीता-डा. राधाकृष्णन, पृ. 313 4. योगबिन्दु, श्लोक 86 5. कुन्दकुन्दाचार्य : मोक्ष पाहुड, गाथा 4, 5, 8, 9, 10, 11 आदि