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________________ 338 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन सहज है, अनन्त सुख और शक्ति स्वरूप है। न वहां बन्धन है, न मुक्ति और न विकार की कोई प्रतिक्रिया ही। लेकिन यह आदर्शन स्थिति है, जो सिर्फ सिद्धावस्था में ही पाई जाती है। संसार में तो आत्मा सर्वत्र बंधन में ही है और बन्धनयुक्त आत्मा ही बंधन तोड़ने का, मुक्त होने का प्रयास करता है। ____धर्मशास्त्रों में जितने भी आचार वर्णित हैं, नीतिशास्त्रों में जितनी नीतियों और नैतिक नियमों का उल्लेख हुआ है, जितने भी शिष्टाचार और सदाचार के नियम हैं, सभी व्यवहार दृष्टि (practical viewpoint) के अनुसार हैं और संसारी आत्मा के लिए ही हैं, जो अभी तक बंधनों के जाल में जकड़ा हुआ है। नीतिशास्त्र भी निश्चयनय अथवा स्वरूपदृष्टि की ऊँची उड़ान नहीं भरता। वह इसको आदर्श स्थिति स्वीकार करते हुए भी व्यावहाराश्रित अधिक है और व्यावहारिक दृष्टिबिन्दु से ऐसे नियम निर्धारित करता है, जिनके अनुपालन से उस आदर्श स्थिति को प्राप्त किया जा सके। त्रिविध स्थिति __ व्यवहार दृष्टि के अनुसार आत्मा की तीन प्रकार की स्थिति वर्णित की गई हैं। आचारांग में भी इन तीन प्रकार की स्थिति का वर्णन मिलता है; किन्तु (1) बहिरात्मा (2) अन्तरात्मा और (3) परमात्मा-ऐसा स्पष्ट नाम निर्देश नहीं प्राप्त होता। ___आचारांग में वर्णित बाल, मूढ़, मन्द आदि बहिर्मुखी अथवा बहिरात्मा के समकक्ष हैं। पण्डित, मेधावी, धीर, सम्यक्त्वदर्शी, अनन्यदर्शी आदि शब्द आत्मा के अन्तरात्मा स्तर की ओर इंगित करते हैं। इनके लिए मुनि शब्द भी प्रयुक्त हुआ है। सम्यग्दर्शी और पाप से विरत होना, अन्तरात्मत्व ही है। विमुक्त, पारगामी आदि शब्दों का प्रयोग आत्मा की परमात्मदशा को द्योतित करने के लिए हुआ है। स्पष्ट रूप से बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा शब्दों का प्रयोग और इन अवस्थाओं में आत्मा की वृति-प्रवृत्ति, मनोवैज्ञानिक दशा का क्रम 1. देखिए-आचारांग, प्रथम श्रुतस्कन्ध, अध्ययन 3-5
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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