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________________ 332 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन आर्य सुहस्ति के गुरुभाई आर्य महागिरि ने उन्हें सावधान किया । कहा- खरीदा हुआ भोजन श्रमण को नहीं लेना चाहिए, यह आहार एषणा सम्बन्धी दोष है । इसे रोका जाना चाहिए। दोष सेवन उचित नहीं है । । यद्यपि आर्य सुस्त भी जानते थे कि श्रमण को खरीदा हुआ भोजन नहीं ग्रहण करना चाहिए, यह दोष है । किन्तु उसके समक्ष संघ - रक्षा का प्रश्न था । उनके मन-मस्तिष्क में शुद्ध श्रमणाचार और परिस्थिति की विकटता का द्वन्द्व चला, काफी ऊहापोह किया । अन्त में इस निष्कर्ष पर पहुंचे न धर्मः धार्मिक बिना - जब धार्मिक जन-धर्म का अनुपालन करने वाले ही नहीं रहेंगे तो धर्म भी कहां टिकेगा । इस सूत्र के प्रकाश में उन्होंने व्यावहारिक निर्णय लिया, श्रमणों को वैसा भोजन ग्रहण करने से नहीं रोका। इसका परिणाम यह हुआ कि श्रमण संघ सुव्यवस्थित रहा, अकाल की काली छाया में भी श्रमण जन आत्यन्तिक क्षुधा की वेदना से काल कवलित नहीं हुए और सुकाल होने पर उन्होंने दोष सेवन भी त्याग दिया । धर्मशास्त्रीय भाषा में इसे अपवाद मार्ग कहा जा सकता है, जिसका अर्थ ही विकट परिस्थितियों में विशिष्ट निर्णय । नीति की भाषा में इसे नैतिक अथवा व्यावहारिक निर्णय कहा जायेगा; क्योंकि नीति भी धर्माभिमुखी होती है; नैतिक निर्णय भी धर्म और सदाचार एवं शुद्धाचार की रक्षा के निमित्त ही लिए होते हैं । अपवाद मार्ग का सेवन श्रमण जान-बूझकर उसी स्थिति में करता है, जब उसे विश्वास हो जाता है कि अपवाद सेवन किये बिना ज्ञान-दर्शन - चारित्र आदि आत्मिक गुण सुरक्षित नहीं रहेंगे। इसी प्रकार नैतिक नियम भी धर्म की रक्षार्थ होते हैं निर्धन सेवा की प्रेरणा आचार्य हेमचन्द्र को एक निर्धन वृद्धा ने बड़े भक्ति भावपूर्वक अपने हाथ से बुनी हुई चादर भेंट की । आचार्य उसी मोटी खुरदरी चादर को कंधे पर डाले पाटन पहुंचे। पाटन उस समय गुजरात की राजधानी थी और वहां का नरेश आचार्यश्री का परम भक्त था । उसने एक बहुत ही कीमती चादर देकर आचार्यश्री से विनम्र निवेदन किया ।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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