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________________ नैतिक चरम / 333 “गुरुदेव! यह चादर बहुत ही मोटी और भद्दी है। मुझे इसे देखकर बहुत ही लज्जा और ग्लानि होती है कि मेरे गुरु होकर भी आपके शरीर पर ऐसी खुरदरी चादर रहे। आप इसे उतारिए, मेरी चादर ग्रहण करिए।" आचार्य ने ओजस्वी स्वर में कहा “कुमारपाल ! यह चादर लज्जा और ग्लानि का हेतु नहीं है। लज्जा तो तुम्हें इस बात की होनी चाहिए कि तुम्हारी प्रजा इतनी निर्धन है। प्रजा के प्रति तुम्हारी उपेक्षा ग्लानि का कारण बननी चाहिए।" हेमचन्द्राचार्य के इन शब्दों ने राजा कुमारपाल को उसका कर्तव्यबोध करा दिया। परिणामस्वरूप हजारों-लाखों विधवाओं और अनाथों के अभाव मिट गये। यह श्रमण की लोकोपकारी प्रवृत्ति है। अहिंसा की प्रेरणा ____ अहिंसा जैन धर्म का मूलाधार है। यह दर्शन भी है और आचार भी। यह धर्म भी है और नैतिकता भी। जनमानस में बहुत से अंधविश्वास फैले हुए हैं। कुछ अन्धविश्वासों को तो धर्म से भी जोड़ दिया गया है। ऐसा ही एक अन्धविश्वास है-देवी को पशुओं की बलि देना। . यद्यपि इस प्रथा का वास्तविक अभिप्राय है पशु-प्रवृत्तियों की-हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार, कपट आदि दुर्गुणों की बलि देना; किन्तु स्वाद-लोलुपियों ने इसका रूप बिगाड़ दिया है और पशु-बलि प्रथा का प्रचलन कर दिया। भोली जनता भ्रम-जाल में फंस गई और इस बलि प्रथा को धर्म मानने लगी। __अन्धविश्वास इतना गहरा पैठ गया कि पश-बलि देने से देवी प्रसन्न होकर सभी मनोकामनाओं को पूरा कर देगी और यदि बलि न दी गई तो रुष्ट होकर सभी प्रकार का विनाश कर देगी। पाटण में भी यह कुत्सित हिंसक प्रथा प्रचलित थी। वहां भी कंटकेश्वरी देवी के मन्दिर में पशुओं की बलि दी जाती थी। यद्यपि राजा कुमारपाल अहिंसा-प्रेमी थे, इन पशुओं के प्रति उनके हृदय में दया का दरिया बह उठता था किंतु स्वाद-लोलुपी पाखण्डियों के समक्ष वे विवश थे, जनमानस की अवहेलना करने का साहस वे नहीं जुटा पाते थे। एक बार उन्होंने अपने हृदय की व्यथा आचार्य हेमचन्द्र के समक्ष रखी और इस कुप्रथा को रोकने का उपाय पूछा।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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