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________________ नैतिक चरम / 331 जैनाचार में जितना महत्व स्व-कल्याण को दिया गया है, उतना ही महत्व पर - कल्याण को भी दिया गया है। पर-कल्याण की भावना किसी भी रूप में स्व-कल्याण की भावना से कम नहीं है अपितु कुछ अधिक ही है । तीर्थंकर भगवान को केवलज्ञान प्राप्त होने पर उनकी मुक्ति तो निश्चित हो ही जाती है । यदि वे एक स्थान पर भी अवस्थित रहें तो भी उनकी मुक्ति में कोई बाधा नहीं आ सकती, क्योंकि वे वीतराग हो चुके होते हैं । फिर भी वे भ्रमण करते हैं; देशना देते हैं । उसका कारण एक ही है- सर्व जीवों की कल्याण भावना, दया की भावना । 1 इसी भावना को जैन श्रमण भी हृदय में रखकर नवकल्पी विहार करते हुए भगवान द्वारा दिये गये - विहार चरिया मुणीणं पसत्या इस सूत्र का पालन करते हैं और अपने सदुपदेशों द्वारा लोगों को सद्धर्म की राह दिखाते हैं, उस पर चलने की प्रेरणा देते हैं । इस विहार और व्यावहारिक परिस्थितियों में, संसार से निर्लेप होते हुए भी साधक को धर्म की प्रभावना, लोगों की आंखों से मूढ़ता का पर्दा हटाने के लिए, जन-जीवन की दशा सुधारने हेतु अथवा श्रमण संघ की सुरक्षा, सुव्यवस्था बनाये रखने की प्रक्रिया में ऐसे निर्णय भी लेने पड़ते है, जो उन परिस्थितियों में अनिवार्य होते हैं और जिनका विधान सामान्य श्रमणाचार सम्बन्धी नियमों में नहीं होता । हम यहां एक दो दृष्टान्त ऐसे देंगे जो सीधे व्यावहारिक परिस्थितियों से सम्बन्धित हैं। आर्य सुहस्ति का व्यावहारिक निर्णय आर्य सुहस्तिका श्रमण संघ जिस समय उज्जयिनी में ठहरा हुआ था, वहां भयंकर अकाल पड़ गया। प्रजा-जन दाने-दाने को मोहताज हो गये। बड़ी कठिन स्थिति सामने आ गई । लेकिन तत्कालीन उज्जयिनी नरेश संप्रति श्रमण संघ के प्रति विशेष रूप से श्रद्धा रखता था । इसलिए उसने गुप्त आदेश जारी कर दिया कि श्रमणों को किसी भी प्रकार का अभाव न होने पाये। उन वस्तुओं का मूल्य राजकोष से दे दिया जायेगा । इसका परिणाम यह हुआ कि ऐसे भयंकर अकाल में भी श्रमणों को पर्याप्त मात्रा में भिक्षा मिल जाती थी ।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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