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________________ 330 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन (1) मनोगुप्ति - संरंभ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्त हुए मन के व्यापार को रोकना मनोगुप्ति है । ' (2) वचनगुप्ति - वचन के संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ रूप व्यापार को रोकना वचन गुप्ति है । विकथा, कटु भाषा आदि न बोलना भी वचन गुप्ति है । वाचना, पृच्छना, प्रश्नोत्तर आदि में विवेक रखना - नपी-तुली भाषा बोलना और अन्यत्र मौन रहना वचनगुप्ति है । वस्तुतः वाणी विवेक, वाणी संयम और वाणी निरोध को ही वचनगुप्ति कहा गया है। (3) कायगुप्ति - संरम्भ, समारम्भ, आरम्भ में प्रवृत्त काययोग का निरोध करना तथा सोने-जागने, उठने-बैठने, चलने-फिरने और इन्द्रियों के प्रयोग में योग का निग्रह कायगुप्ति है । # अकुशल और कुशल कर्मों के लिए नीतिशास्त्र में अशुभ और शुभ शब्द दिये गये हैं । मन-वचन-काय की अशुभ प्रवृत्तियां वहां भी अनैतिक हैं, करने योग्य नहीं हैं और शुभ प्रवृत्तियां आचरणीय हैं, नैतिक हैं । गुप्तियों की जैसी अवधारणा धर्मशास्त्रों में है, वैसी ही नीति में भी है। इसमें कोई विशेष अन्तर नहीं है । इन समिति गुप्तियों के योग से श्रमक साधक अपने स्वीकृत महाव्रत आदि 27 गुणों का परिपालन करता हुआ नैतिक चरम की ओर बढ़ता है । स्व-पर कल्याण इस सम्पूर्ण विवेचन से यह धारणा बना लेना उचित नहीं होगा कि श्रमण की समस्त साधना स्व केन्द्रित है, वह अपनी ही आत्मा के उत्थान में लीन रहता है। अपितु सत्य यह है कि वह अपने कल्याण के साथ अन्य जनों, दूसरे लोगों-मनुष्यों और यहां तक कि जीवमात्र के प्रति कल्याण-भावना रखता है और जहां तक सम्भव हो सकता है, कल्याण करता भी है । 1. उत्तराध्ययन सूत्र, 24 / 21 2. उत्तराध्ययन सूत्र, 24 / 22-23 3. वाचन पृच्छन प्रश्नव्याकरणादिष्वपि सर्वथा वाङ्निरोधरूपत्वे, सर्वथा भाषानिरोध रूपत्वं वाग्गुप्तेर्लक्षणं । - आर्हत्दर्शन दीपिका, 5/644 4. उत्तराध्ययन सूत्र, 24 / 24-25.
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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