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नैतिक चरम / 329
(5) उच्चार - प्रस्रवण - श्लेष्म - सिंघाण जल्ल परिष्ठापनिका समिति' - यह सभी शरीर मलों के नाम हैं । उच्चार का अर्थ है विष्ठा, प्रस्रवण सूत्र को कहते हैं, श्लेष्म कफ का नाम है । भाव यह है कि उत्सर्ग अर्थात् फेंकने योग्य वस्तु को देखभाल कर ऐसी जगह फेंकना चाहिए जिससे न तो किसी जन्तु की हानि ही हो और न ( मानव आदि) किसी को असुविधा ही हो ।
तत्वार्थ सूत्र में इस समिति का नाम उत्सर्ग समिति' दिया गया है। इसका व्यावहारिक एवं नैतिक महत्व स्पष्ट है ।
गुप्ति
गुप्ति का अभिप्राय है - मन-वचन-काय की अकुशल वृत्तियों को रोकना, उनका निग्रह करना ।
अकुशल प्रवृत्ति का अभिप्राय है- संरंभ, समारम्भ, आरम्भ की ओर मन-वचन-काय की प्रवृत्ति । अकुशल के ही जैन दर्शन में असम्यक् कहा गया है। इन असम्यक् प्रवृत्तियों का निग्रह करना और सम्यक् प्रवृत्ति में योगों को लगाना गुप्ति है।
गुप्ति शब्द से दो अभिप्राय व्यंजित होते हैं - (1) गोपन करना अर्थात् बाह्य जगत की ओर से खींचकर, निरोध करके योग्य व्यापार को दर्शन-ज्ञान-चारित्र आदि आत्मभावों में स्थिर करना और गोपन का दूसरा अभिप्राय है, अशुभ व्यापारों - वृत्तियों से रक्षा - सुरक्षा करना। 1
इनमें से अकुशल प्रवृत्तियों का निरोध निवृत्ति रूप और कुशल प्रवृत्तियों में प्रवर्तमानता प्रवृत्तिरूप है।
मन के विचारों की प्रवृत्ति (1) सत्य ( 2 ) असत्य (3) मिश्र - सत्य-असत्य मिश्रित और (4) अनुभय-न सत्य, न असत्य अपितु लोक व्यवहार- इन चार रूपों में होती है। यही 4 भेद वचन - प्रवृत्ति के भी है । इसी कारण मनोगुप्ति और वचनगुप्ति के भी चार-भेद होते हैं ।
1. उत्तराध्ययन सूत्र, 24 / 15 2. तत्वार्थ सूत्र, 9, 5
3. सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ।
4. गोपनं गुप्तिः - मनः प्रभृतीनां कुशलानां प्रवर्तनमकुशलानाम् च निवर्तनमिति ... ।
तत्वार्थ सूत्र, 9, 4
- स्थानांग वृत्ति, पृ० 105 106