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8 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
मैं धर्म को जानता हूं किन्तु इसमें प्रवृत्ति नहीं कर पाता और अधर्म को भी जानता हूं किन्तु उसे छोड़ नहीं सकता।
यहां धर्म शब्द का प्रयोग नीति के अर्थ में है और अधर्म शब्द अनीति को द्योतित करता है।
ऐसे व्यक्ति मान की भावना (desire for respect) से ग्रसित होते हैं। वे अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए सामने वाले के साथ अनीतिपूर्ण व्यवहार करते हैं, उसे नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं।
द्रौपदी का चीरहरण दुर्योधन का ऐसा ही अनीतिपूर्ण कुत्सित प्रयास था। रावण का अभिमान में चूर होकर राम के साथ युद्ध करना भी अनीति था।
ऐसा ही अनुचित प्रयास गोशालक ने भी किया था, जब उसने श्रमण भगवान महावीर पर तेजोलेश्या का प्रयोग किया था। वह भी अपने को सर्वज्ञ, सर्वशक्तिशाली और तीर्थंकर सिद्ध करना चाहता था तथा भगवान महावीर को अल्पज्ञ और अल्पशक्ति वाला। वह गोशालक अतिपूज्य (sacrosanct) बनने की दुर्भावना से ग्रसित था।
ऐसी बात नहीं कि अनीति करने वाले लोग बुद्धिहीन हों। किन्तु उनकी बुद्धि पर मान, लोभ आदि कषायों का पर्दा पड़ा रहता है। उनके कार्य कषायप्रेरित और कषायों के रंग में रंगे होते हैं। इसीलिए उनके व्यवहार अनीतिपूर्ण होते हैं, क्योंकि ये अशुभ आवेगों से प्रेरित होते हैं। दुर्नीति-अतिनीति का ही दूसरा नाम
जब कषायों के आवेग (impulses of passions) सीमा को लांघक अति तक पहुंच जाते हैं तो व्यक्ति की सद्बुद्धि लुप्त हो जाती है और वह अति के अतिरेक में दुर्नीतिपूर्ण कार्य करने लगता है।
ऐसा भी नहीं है कि अति से ग्रसित व्यक्ति (extremist) सदा ही दूसर का बुरा चाहता हो; किन्तु उसके कार्य ही परिणाम में कष्टप्रद होते हैं।
कभी-कभी अतिसाहस (over-boldness) के कारण भी मनुष दुर्नीतिपूर्ण कार्य कर बैठता है। वीरगाथाकाल (cavalry age) के यूरोप का एक ऐसा ही अतिसाहसी व्यक्ति था-डान क्विक्जोट (Don Quixote) और उसव सहायक था सेंको पांजा (Sanco Panza) । डान क्विक्जोट साहस के संवेग बह जाता था, अतः बुद्धि से काम कम ले पाता था। 1. भगवती सूत्र, शतक 15, देखें भगवान महावीर : एक अनुशीलन, पृ. 518-527