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________________ 326 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन होता है। नीतिशास्त्र की अपेक्षा से ‘जीवन की लालसा का त्याग' का अभिप्राय सभी प्रकार की आशाओं और तृष्णाओं का त्याग लिया जा सकता है। वस्तुतः आशा और तृष्णा के त्याग के उपरान्त ही मानव में निर्भयता का भाव दृढ़ होता है, तभी इसमें अनासक्ति की भावना गहराई से जमती है और फिर उसे किसी के संग-साथ की आवश्यकता नहीं रहती। अनासक्ति, निर्भयता आदि शुभ नैतिक प्रत्यय हैं। इनकी चरमावस्था ही नैतिक चरम है। प्रवचनमाता साधु के आचार में प्रवचन माता का स्थान अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इनका विधान महाव्रतों की सुरक्षा और विशुद्धता के लिए किया गया है। यह संख्या में 8 हैं-तीन गुप्ति और पांच समिति। इनको उत्तराध्ययन सूत्र में प्रवचनमाता कहा है और इसका कारण यह बताया गया है कि इन आठों में सारा प्रवचन समा जाता है। व्यावहारिक दृष्टि से इनको प्रवचनमाता कहने का कारण यह है कि जिस प्रकार माता अपनी सावधानी और विवेक तथा जागरूकता से यत्नपूर्वक शिशु की रक्षा, तथा उसका संवर्धन करती है, इसी प्रकार यह समितिगुप्ति भी महाव्रतों की सुरक्षा और उनका संवर्धन करती है। गुप्ति और समिति का हार्द यतना है, जिसे जयणा भी कहा गया है। जब महावीर के समक्ष जिज्ञासु साधकों ने जिज्ञासा रखी कि हम किस प्रकार चलें, बैठे, सोवें, खावें इत्यादि सभी प्रवृत्तियां करें जिससे हमें पाप कर्मों का बन्ध न हो। ___ यह सत्य है कि मानव-जीवन में प्रवृत्ति आवश्यक है, अनिवार्य है। जब तक जीवन है, मानव जीवन बिना प्रवृत्ति किये रह ही नहीं सकता। भगवान भी इस तथ्य को जानते थे अतः उन्होंने समाधान दिया यतनापूर्वक चलने, बैठने, सोने, खाने (आदि सभी प्रकार की क्रियाएं करते हुए) से पाप बंध नहीं होता। 1. उत्तराध्ययन सूत्र, 24/1 2. (क) वही 24, 3, (ख) 24, 3 लक्ष्मीवल्लभ टीका (ग) उत्तराध्ययन, बृहद्वृत्ति पत्र 513, 14 3. दशवैकालिक सूत्र, 4, 39 4. वही, 4, 31
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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