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324 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
सुध्यान के दो भेद हैं-(1) धर्मध्यान और (2) शुक्लध्यान।
तत्वार्थ सूत्र में सुध्यान को मोक्ष का हेतु कहा गया है। अन्य सभी आगम और आगमेतर जैन ग्रन्थों में भी यही विचार प्रगट किया गया है। साथ ही संसार में जितनी भी धर्म परम्पराएं प्रचलित हैं, सभी में सिद्धान्ततः इन्हीं विचारों की पुष्टि प्राप्त होती है।
रौद्रध्यान-दुर्ध्यान का निकृष्टतम रूप है। रौद्रध्यानी व्यक्ति के मस्तिष्क में हिंसा के, असत्य के, चोरी के और विषय भोगों तथा उनके साधनों के संरक्षण के विचार चलते रहते हैं। ऐसा व्यक्ति किसी को पीड़ित करके, झूठ बोलकर, किसी को ठगकर, चोरी करके खुश होता है, हर्षित होता है, अपने को सफल मानता है।
ऐसा व्यक्ति घोर अनैतिक होता है, नीति का उसे स्पर्श भी नहीं होता, उसके हृदय में हमेशा क्रूरता (cruelty) भरी रहती है। ऐसे क्रूर व्यक्तियों की गणना घोर अनैतिक व्यक्तियों में की जाती है।
आर्तध्यान-यह भी दान तो है, किन्त रौद्रध्यान की अपेक्षा इसकी तीव्रता कम है। यद्यपि आर्तध्यानी व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में ईर्ष्या, द्वेष आदि दुर्भावनाएं भी होती हैं किन्तु इनकी तीव्रता रौद्रध्यानी की अपेक्षा कम होती है। शोक, चिन्ता, आक्रन्दन, रुदन, क्लेश, विलाप आदि भी यह करता है।
वस्तुतः आर्तध्यानी व्यक्ति सुखवादी होता है, अपना सुख ही इसे अभीप्सित होता है। इसलिए यह अप्रिय वस्तु के संसर्ग से दूर रहना चाहता है और प्रिय वस्तु या व्यक्ति को अपनाना चाहता है। यह किसी प्रकार की पीड़ा नहीं चाहता, थोड़ी सी भी पीड़ा होते ही, चिल्लाने लगता है और उसे दूर करने के उपायों का चिन्तन करने लगता है, आगामी काल और जीवन में भी सुख ही चाहता है-सुख भी संसारी-मानसिक, वाचसिक और कायिक; आत्मिक सुख की ओर इसकी प्रवृत्ति नहींवत् होती है।
यह दान, पुण्य, तप, भक्ति आदि जितनी भी क्रियाएं करता है, उनका प्रमुख लक्ष्य लौकिक सुख-प्राप्ति होता है। इसके हृदय में अनेक प्रकार की इच्छाओं-आकांक्षाओं का वास रहता है।
इसी कारण यह बात-बात में शंका करता है, भयभीत-सा बना रहता है। इसका चित्त भ्रमित रहता है, कायरता और वस्तुओं में मूर्छा भाव भी रहता है। इसमें निन्दक वृत्ति, शिथिलता, प्रमाद, जड़ता लोकैषणा, धनैषणा, भोगैषणा की प्रधानता रहती है।